Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 75
________________ (५७) , निराश करनेकी शिक्षा ग्रहण करता है । और जब वह वालोंके साथ - खेलनेके लिए जाता है तब उसे देखोगेतो जान पड़ेगा कि वह अपनी - माताके उस झूठी आशा-लोभ और धोखा देनेका उन वालकोंके साथ i कैसा अभिनय करता है। (७) वालककों भय दिखाकर अथवा मारने आदिके द्वारा उसे अपनी आज्ञामें चलाना मानों उसे आज्ञा उल्लघन करनेकी शिक्षा देना है । संभव है कि बालक दण्डके भयसे अपने सामने कोई बुरा आचरण न करे, परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि आखोकी आड़ होते ही वह बुरे आवरणकी रही सही कमीको भी पूरी कर देता है। जो बालक अपने माता पितादिक द्वारा अधिक ताड़ना किये जाते है उन्हें ही साधारणपर्ने दुष्ट और दुराचरणी कहना चाहिए। वालकोंको तो प्यारके साथ शिक्षा देकर वशीभूत करना चाहिए। जब प्रेमसे बालक वश हो जाते हैं तब सामने वा पीठ पीछे कमी उनके दुराचरण करनेकी संभावना नहीं की जा सकती। ऐसी हालतमें बालक जब कमी दुराचरण भी कर लेता है तब उसके साथ थोडीसी अप्रीति वतला दी जाती है तो वही उसके लिए बड़ा भारी दण्ड हो जाता है । उसवक्त उसके हृदय यह विचार उत्पन्न होता है कि " आज मैंने अन्याय कियावुरा काम किया-इसी लिए माता मुझसे प्यार नहीं करती है और न वोलती ही है । " इस लिए फिर वह निरन्तर सावधान होकर रहते है।

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