Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 65
________________ ( ४७ ) अशरणभावना | राजा महाराजा चक्रवर्ती सेठ साहूकार सुर नर किन्नर सकल गिन जाईये, कोई भी समर्थ नहीं किसीको बचानेको आसरा इन्हींसे फिर किस तरह पाइये । तरण एक गुरुके चरण सोहें, उनकी शरण गह ज्ञान मन लाइये, गाइये गुणानुवाद गिरिधर ईश्वरके भयको नसाइये औ आनंद मनाइये । संसारभावना । नाना जीव बार बार जनम जनम मरें नये नये घरें देह नाचकर लीजिए, जग है असार यहा कोई वस्तु सार नहीं दुखभरी गतिया है चारों देख लीजिए । गिरिधर चित्तमें न दोप कहीं घुस बैठे इससे सढ़ा ही सावधान रह लीजिए, सबकी भलाईकर रखिये चरित्र शुद्ध पीजिए सुज्ञानामृत आत्मध्यान कीजिए । एकत्वभावना आये है अकेले और जायगे अकेले सत्र भोगेंगे अकेले दुख सुख भी अकेले ही, माता पिता भाई बन्धु सुत ढारा परिवार किसीका न कोई साथी सब है अकेले ही, गिरिधर छोड़कर दुविधा न सोचकर तत्त्व छान बैठके एकान्तमें अकेले ही, कल्पना है नाम रूप झूठे राव रक भूप अद्वितीय चिदानन्द तुम हो अकेले ही । अन्यत्त्वभावना । घर बार धन धान्य दौलत खजाने माल भूषण वसन बड़े बड़े ठाठ न्यारे है, न्यारे न्यारे अवयव शिर, धड, पाव न्यारे जीभ,

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