Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 53
________________ (३५) · कर इतना लज्जित हुआ कि उसे शहरका निवास ही परित्याग कर देना पड़ा। उसकी भ्रवें इतनी चञ्चल होगई कि क्या मजाल जो • बिजली भी उन्हें पराजित कर सके ? वेचारे बाणकी क्या ताकत • जो मनुष्योंके हृदयमें इनके वरावर गहरे घाव कर सके उसके होठोंकी मधुर हँसी लोगोंके कठोरसे कठोर हृदयमें तीरकी तरह मिदने लगी । उनकी लालिमा प्रात कालीन सूर्यकी लालिमाको दवाने लगी। उसके स्तनोंकी सुन्दरताने सुधापूरित कलशोंकी गोमाको लज्जित कर दी और उसके सुवर्णमय शरीरके मनोहारी लावण्यने सुमेरु शैलकी कान्तिको भुला दी। था.में यों कह लीजिए कि अब तारा सब तरह कामके आधीन हो चुकी । कामने उसपर अपनी राज्यसत्ताकी-अपने आधिपत्यकी-मोहर लगा दी। तारा अब समझने लगी कि मैं बहुत वर्षोसे अनाथिनी हो चुकी हूं। मुझे मेरी माताने-राक्षसी माताने-इस नरकमें ढकेली है । वह . उसे अव जीती जागती पिशाचिनी दीग्वने लगी । वह कैसी भी है, पर अत्र हो क्या सकता है। अब तो उसकी आखोंके सामने निराशाका अथाह समुद्र लहरें लेता हुआ दिखाई पडता है । वह कर्तव्य विमूढ अवश्य है पर तब भी उसके भावोंमें परिवर्तन होगया है । हम उसमें पवित्रता नहीं देखते । उसका हृदय कलंकसे काला जान पड़ता है। उसकी दृष्टिमें अब चञ्चलता है । उसका मन अधीर है । वह उसे अपने काबूमे रखनको असमर्थ जान पड़ती है। उसका यह सत्र चरित्र देखकर सभव है पाठक ताराको अपराधिनी कहें, पर इसमें उस वेचारीका दोष क्या । उसका तो विवाह भी उस समय हुआ है जब वह अनान वलिका थी । फिर विवाह भी एक

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