Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 58
________________ ( ४० ) मोतीलाल - मुझे तो कुछ मालूम नहीं पर पिताजी कभी कभी कहा करते थे कि मोतीलाल के विवाहमें बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ी थी । तारा — अच्छा जाने दो। तुम्हें विवाह करके ही क्या करना है ! जवतक कि.............हां मोतीलाल ! यह तो कहो कि प्रेम करना कैसा है ? और तुम उसे कैसा समझते हो ? तारा - निर्लज्ज तारा-मोतीलालको वातोंमें लगाकर धीरे धीरे उसके पलंगपर जा बैठी । मानो घीके पास अग्नि आ विराजी । नीति कारने बहुत ठीक कहा है अङ्गारसदृशी नारी नवनीतसमा नराः । तत्तत्सान्निध्यमात्रेण द्रवेत्पुसा हि मानसम् ॥ आगे क्या हुआ ? यह लिखनेको हम लाचार है । उपसंहार | तारा बहुत दिनोंतक आनन्द मनाती रही । पर पापका - महापापकाफल भयंकर होता है। उसे अपने पाप छिपानेके लिए एक अनर्थ और करना पडा । वह क्या ? भ्रूणहत्या - बालहत्या | जब वह इस पाप कलङ्कसे बचनेके लिए बच्चेको -अपने जिगरको - कुए में डालने गई तत्र पांव फिसल जानेसे उसके डूब मरी । अभागे भारत ! तेरी छातीपर तो ऐसे महापातक दिन - रात हजारो ही होते है । इसीसे तेरा अधःपतन हुआ है - तेरा सर्वनाश हुआ है । साथ साथ आप भी 1

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