Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 57
________________ ( ३९ ) मोतीलाल- मैंने उसे बहुत बार तो देखी नहीं । पर हां कभी कभी अवश्य देखी है । वह तो मुझे लकड़ीकी तरह मूखी भूखी और पीली पीली जान पड़ती थी। मुझे दो उसे देखकर एक तरह अरुचि हो जाती थी । मैं कह सकता हूं कि उसमें और तुममें जमीन आशमानकासा अन्तर है । तारा - मोतीलाल ! क्या तुम मुझे उससे अधिक सुन्दरी समझते हो ! अच्छा तत्र तो मै तुम्हारी दृष्टिमें बहुत वत्रसूरत हू । मोतीलाल ! सौन्दर्य भी कैमा प्यारा होता है ? वह भी फिर स्त्रीका ' तुम सच तो कहो कि तुमने भी कभी मौन्डपर प्रेम किया है। मोतीलाल ! तुमपर मेरा बड़ा प्रेम है । हा ठीक भी तो है, मेरे दुखनेको तुन्हारे सिवा और हेही कौन ? तुम्ही मेरी आवक तारे हो । किर तुमपर ही प्रेम न होगा तो किसपर होगा ? पर मोतीलाल । यह जानकर हृदयपर वज्रका पहाड़ गिर पड़ता है कि मैतो दुखी हूं सो हूही पर साथ ही तुम्हें भी दु.खके अनगरसमुद्रम डूबा हुआ देखती हूं। क्यों मोतीलाल ! क्या तुम कोई उपाय नहीं करते जिससे मैं तुम्हें सुखी देख सकूं ? मोतीलाल - तुम क्यों इतनी चिन्ता करके दुखी होती हो ' देखा जायगा । ताग - हां मोतीलाल | सुनो तो तुम अपना विवाह क्यों नहीं कर लेत ? मोतीलाल -- एक विवाह ही बड़ी कठिनताले हुआ था. अत्र न जाने कितनी तकलीफ उठानी पंडगी तारा- क्यों ? तकलीफ कैसी !

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