Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 54
________________ (३६) जहीसके साथ जो अपनी मौतके दिन पूरे कर रहा था। यह दोष यह अपराध उसकी पापिनी माता और निर्दयी-नरपिशाच-पूनमचन्दका है जो दोनोंने अपने अपने स्वार्थके वश होकर उस गरीबिनी आप्तमझ वालिकाके गले पर छुरी फेरी-उसे जीवन भरके लिए-नरककुण्डमें ढकेलदी। ताराका हृदय अब दिनों दिन बुरी वासनाओंका स्थान बनने लगा । पाठक ! आप कुछ भी कहें पर इसमें सन्देह नहीं कि कामसे विजय पाना-उसके विकारोंको नष्ट करना-सर्व साधारणका काम नहीं । जिस कामने चारुदत्त सरीखे कर्मवीरको पाखानेकी हवा खिलाई, रावणके विशाल राज्यको रसातलमें मिलाकर उसे कलकियोंका शिरोभूषण वनाया, सत्यंधर सरीखे राजतत्ववित् राजाका सर्वनाश कर दिया, ब्रह्माको अपनी ही पुत्रीपर प्रेमासक्त कर उसे अपने देवपनेके उच्चासनसे गिरा दिया, संसार के उपास्य शंकरको आधे स्त्रीरूपमें परिवर्तित कर दिया और चन्द्रको अपने गुरुकी पत्निके प्रेमपाशमें फंसा दिया। वह काम-जगद्विनयी काम-वेचारी ताराके अवला ताराके-द्वारा जीता जा सके यह नितान्त असंभव । अधियारी रात है। शहर भरमें कहीं शब्दका नाम नहीं। चन्द्रमाका अभी उदय नहीं हुआ है । जान पड़ता है कि वह पहलेहीसे तो कलंकी हैं और आजकी असाधारण कलंकित घटनाको देखकर वह अपनेको क्यों और अधिक कलंकित करे ! क्योंकि कलंकियोंकी छायाका छूना भी तो कलकित करता है । यही समझ कर वह अभीतक उदय पर्वतपर नहीं आया है ।

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