Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 42
________________ (२४) है। बस यही मेरा उत्तर है। अब इसपर जो तुम्हें उचित जान पड़े वह करो । पर मै तुमसे प्रेम नहीं करता। ___ सुनते ही वेचारी कञ्चनके शिरपर वज्रसा गिर पड़ा । उसका सारा शरीर सन्न होगया । वह मोतीलालका हाथ छोड़कर अलग होगई । उसका शिर घूमने लगा। दुःख और चिन्ताके आवेगसे वह अपनेको न सम्हाल सकी। वह एक दम घडामसे पृथ्वीपर गिर पड़ी। मोतीलालका पत्थर हृदय तब भी नहीं पसीजा । वह अवसर पाकर वहांसे चलता बना । मूर्खता ! तुझे सो वार नमस्कार है । - - विपत्तिपर विपत्ति । मैं बहुत दुःख उठा चुकी । अब मुझसे यह दारुण दशा नहीं मोगी जाती । परमात्मा ! मै अभागिनी हूं। अनाथिनी हूं। कर्मोको मारी हुई हूँ। मेरी रक्षा करो-मुझे वचाओ। विपत्तिके अथाह समुद्रमें वही ना रही हूँ, मुझे सहारा दो । आपने पापीसे पापी और अधमसे अधमका उद्धार किया है फिर मेरा-दुःखिनीकादुःख क्या दूर नहीं करोगे ? आपका स्मरण करके भी जब वहुतस सुखी होगये है तव मुझे, जो दिन रात आपका ध्यान किया करती हूं, सुखी न करोगे ! मेरे प्यारेने मुझे छोड़दी है। पर क्यों ? यह मैं नहीं जानती । आप मुझे बतलाइये कि मेरा क्या अपराध है ! क्योंकि आप सर्वज्ञ है। सबके जानने वाले है । फिर मैं उसका प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो लूं । हाय ! सचमुच मै पापिनी हूं। मैने बहुत पाप किये हैं। इसीसे मुझे यह दुःख-भयंकर दुःखभोगना पड़ा है।

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