Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 43
________________ (२५) प्राणनाय ! यदिमें आपकी दृष्टिम अपराधिनी ही हूं तो भी इतनी बुरी तो नहीं हूं कि आप मुझसे बोलनेमें भी घृणा करें ? मुझसे एक वक तो प्रसन्न चित्त होकर आप संमाषण कीजिए । मैं इरतेहीमें अपनेको सौभाग्यवती समझ लूगी। केवल बोलने मात्र तोमै आपला कुछ छीन नहीं लूंगी। मेरा जीवन-यह पापमय जीवन सफल हो जायगा । जीवनसर्वस्व ! मैं हिन्दू कुलमें--पवित्र कुलमेंउत्पन्न हुई हूं। आप जानते है कि हिन्दु रमणीरत्नोंका एक मात्र आराध्य देव उनका पति होता है । उसे छोडकर न तो कोई उसका आराध्य है और न जीवनमें सहारा देनेवाला है । आप मेरे प्राण है। इस भयंकर अवस्था मी जो मैं इन पापी प्राणोंको धारण किये हुई हूं वह केवल आपके सहारेपर । भला । आप ही विचारें कि जब मुझे आप ही अपने चरणोंकी छायाका आश्रय न देगें तब और कौन मेरी रक्षा करेगा ? नाथ ! मैं आपकी एक दासी हूं। मुझपर दया करो । मुझे इस विपत्तिसे उबारो। मैं आपकी अपराधिनी हू तो मुझे क्षमा करो और मुझे रहनेको अपने हृदयमें जगह दो । प्यारे । क्या सचमुच आप मेरी प्रार्थना न सुनेगे ? मुझे सहारा देकर मेरी रक्षा न करेंगे? मैं हाथ जोडती हु । पावों में पड़ती है। मुझे बचाओ । में केवल आपकी कृपाकी भूखी हूं। मुझे धन दौलतकी कुछ जरूरत नहीं । प्यारे ! एक वक्त प्रसन्न होकर अपने श्रीमुखसेसुन्दर मुखसे-वाल लीजिए । मधुर हँसी हॅस लीनिए । बस यही चाहती हूँ। जीवनेश्वर ! आप मुझे नहीं चाहते न सही पर प्रेमकी दृष्टिसे एक वक्त मेरी ओर निहार तो लिजिए। इतनेमें तो आपका कुछ नहीं निगढ जायगा। क्या विपत्तिकी मारी एक अभागिनीपर करो। र मुझे रहनेको अमगे मुझे सहा मुझे

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