Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 29
________________ मुंमे नहांतक अपने माइयोंकी अवस्थाका परिज्ञान हुआ है, नहातक मैंने उनके कर्तव्यको समाप्तिपर. लम्य दिया है। उससे मैं यह निःसन्देह कह मरता हूं कि उनका यह अमिमानयह अपने धर्मन उत्तमता बतलाना केवल दूसरोंके लिए है। हजारोंमें शायद ही कोई एक ऐसा निकलेगा जो स्वयं भी इन बातोंपर चलनेके लिए कटिबद्ध रहता हो । हमारे भाइयोंके कर्तव्यकी समाप्ति तो बस इतनेहीमें हो जाती है कि वे डिनमें एक वक मन्दिरमें नाकर दर्शन कर आते हैं। वे दर्शन करते हैं अवश्य, पर किस लिर? पुण्य सन्यादनके लिए । उनके हृदयमें यह विश्वास है कि दर्शन करना पुण्यका कारण है। पर वे यह नहीं जानते कि हमारे ऋषियाने किस लिए प्रतिमाका दर्शन करना बतलाया है ? इस बातका उन्हें स्वप्नमें भी सयाल नहीं होता कि हम जिनके दर्शन करते हैं वे अपने अपूर्व गुणों से संसारके आदर्श हुए हैं। उन्होंने उसके हितकेलिए सतत प्रयत्नकर उसे कल्याणका पय प्रदर्शन कराया है, जीवमात्रक्त उपकार करनेके लिए कठिनसे कठिन दुःख उठाया है और अन्तमें काँका नाग कर अपने आत्माने अनर अमर बना लिया है। उनके ये गुण हमें भी प्राप्त करनेकी कोशिश करनी चाहिए । अपने आत्माक्ने उन आदौके पयपर लगाकर उसे पवित्र बनाना चाहिए । संसारके दुःखी जीवोंका-अपने माइयोंक्य-हमें उपकार करना चाहिए । आदि । हमारा इस बातपर बिस्कुल लक्ष्य नहीं । हम तो दर्शन करनेका केवल इतना ही मतलब समझे हुए हैं कि उससे पुण्यबन्ध होकर हमें स्वर्गकी प्राप्ति होगीहमें इसकी जन्तरत नहीं कि हम दूसरोंके उपकारके लिए उपाय करें।

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