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ऋषियोंके कर्त्तव्योंपर कुछ भी विचार नहीं आता कि उन्होंने अपने जीवनको कैसे कामोंमें लगाया था । हमारी आंखोंके सामने ऐसे अनेक आदर्श उदाहरण विद्यमान है जिनसे कि हमारे पूर्व पुरुषोंकी उदारता और परोपकारताका पूर्ण पता लगता है। उन्होंने अपनी जातिके लिएअपने भाइयोंके लिए अपने जीवनतककी कुछ परवा नहीं की थी। पर आज तो हमारे देश और जातिके भाइयोंकी बहुत पतितावस्था है तत्र भी हमें कुछ नहीं सूझता । उनके दुःखपर बिल्कुल दया नहीं आती। हम जानते है कि नैनधर्मका उद्देश्य जीवमात्रपर दया करनेका--उनके दुःखमें सहायता देनेका - है, पर वह केवल हमारे लिए कथन मात्र है । उसपर चलना यह हमारे लिए कुछ आवश्यक नहीं । हम दूसरोंको समझावेंगे तब नैनधर्मकी बेशक खूब नी जानसे तारीफ करेंगे पर उसपर हम भी चलते है या नहीं इसका कभी बिचार भी नहीं करेंगे । हम दूसरोंको कहते हैं कि हमारा धर्म बडा ही दयामय है, पर हममें कितनी दया है उसका कुछ जिकर नहीं । हमारा धर्म संसारमात्रका कल्याण करनेवाला है, पर उसे पाकर हमने भी कुछ अपना कल्याण किया है या नहीं ? हमारे धर्ममें बडे बडे आदर्श और परोपकारी पुरुष होगये है, पर हममें भी कुछ उपकारखुद्धि है या नहीं ! हमारे धर्ममें पापकर्मके न करनेपर खूब जोर दिया गया है, पर हम दिनरात जो हिंसा, झुंठ, चौरी, मायाचार, दगाबाजी करते हैं, जहातक वनपडता है दूसरोंको तकलीक पहुचा कर अन्याय - अनर्थ - करते हैं, अपने ही भाइयोंके साथ नहीं करनेका काम करते है, वुरेसे बुरे और नीचसे नीच काम करनेसे भी हम बाज नहीं आते हैं,