Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 34
________________ भोले भाइयो ! अब अपनी इस भोलपनको छोडो। इस भोलएनसे-इस हृदयकी अनुदारतासे-हम बहुत पतित हो चुके है । हमें अपने कर्तव्यका ज्ञान नहीं रहा है। आप जो अपने हृदयमें यह निश्चय किये हुए बैठे हो कि परमात्माके दर्शन करनेसे ही हमारे कर्त्तव्य की समाप्ति हो जाती है यह आपकी नितान्त भूल है । मैं कहूंगा कि संसारके बुराई मलाईकी जितनी जबाबदारी आपपर है उतनी किसी पर नहीं है । क्योंकि यह आपहीके धर्मका पवित्र सिद्धान्त है कि 'सत्वेषु मैत्री' अर्थात् जीवमात्रपर प्रेम करो। और आपके तीर्थंकरोंने भी सारे संसारके लिए कल्याणका मार्ग बताया है। फिर आप ही कहें कि जो सारे संसारको अपना समझकर उसे कल्याणके मार्गपर लाना चाहता है तब उसे उसके हित वा अहितका जबाबदार होना पडेगा या नहीं ! अपनी गहरी भूलको छोडो और संसारमात्रके हितमें लगो, यही हमारी आपसे प्रार्थना है। आपके लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है । इसलिए केवल परमात्माके दर्शनसेही अपने कर्त्तव्य समाप्ति मत समझो । -

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