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हमारा कर्तव्य समझिए, परोपकार करना.समझिये, अपने धर्मपर "चलना समझिये या पुण्यकर्म समझिये, जो कुछ समझिये वह केवल इतना ही कि प्रात:काल एक वक्त भगवान्के दर्शन कर आना है । दर्शन भी कैसा ! चाहे उस वक्त हमारे भावोंमें पवित्रता न हो, चाहे हमारा उपयोग उस वक्त कहीं अन्यत्र लगा हो, चाहे दृष्टि पापवासनाकी तरफ झुकी हो, चाहे हम भारीसे भारी आकुलित अवस्थामें हो, चाहे हम मन्दिरकी रमणीय वस्तुओंके अवलोकनमें अपने उपयोगको लगा देते हों और ऐसे समयमें चाहे फिर हमे पुण्य -बन्ध भी नहो। परन्तु इन बातोंकी हमें कुछ परवा नहीं। हम तो दर्शन
कर ओनेको ही सब कुछ समझते हैं। हमें इस विचारकी जरूरत नहीं कि दर्शन करनेके अतिरिक्त भी कुछ हमारा कर्तव्य है । इसमें सन्देह नहीं कि भगवानका दर्शन करना उत्तम न हो। उत्तम है और अवश्य कर्त्तव्य है। पर विचारके साथ । महर्षियोंने दर्शन करनेका केवल इतना ही आशय रक्खा है कि भगवानको देखकर हम उनके अपूर्व परोपकारता आदि गुणोंका स्मरण करें और फिर उनके अनु-सार अपनेको भी उन गुणोंका पात्र बनावें । दर्शन करनेका अभिप्राय जो केवल इतना ही समझे हुए है कि उससे पुण्यवन्ध होता है और इसी लिए वे दर्शन करते हैं तो वे भल करते हैं। किसी तरहकी आशासे धर्मकाम करना इस विषयमें हमारे ऋषियोंकी सहानुभति -नहीं है। वे उसे अच्छा नहीं समझते। हमें परमात्माके दर्शनसे उनके गुण प्राप्त करने चाहिएं। हमें यह लिखते हुए अत्यन्त दुःख होता है के हम अपने मनुष्य जन्म और जैनधर्मके प्राप्त करनेकी समाप्ति केवल परमात्माके दर्शनसे-देखनेसे-समझ बैठे हैं। हमें अपने