Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 28
________________ (१०) दुश्मन हैं-उसे कुगतिमें भ्रमण • करानेवाले हैं । इनके वश अपने आत्माको कभी न होने दो और इन्द्रियों के विषयोंमें कभी आसक्ति मत करो । आदि। इतने कहनेको सार थोडेमें यह कहा जा सकता है कि आत्माको सदा पवित्र रक्खो और पवित्र काम करो । यहाँ कल्याणका मार्ग है-आत्माके सुधारका उपाय है । आत्माके पवित्र रक्खे विना कोई काम लाभदायक नहीं हो सकता । इत्यादि । यही नैनमतका सार और असली उद्देश्य है। ये बातें पूछनेवालेको हम सुना नाते हैं और पीछे बहुत कुछ अपनी तारीफके ढेर लगा देते है। . इसमें सन्देह नहीं कि ये सब बातें सही है और इसपर चलनेबालेका बहुत कुछ ,हितसाधन हो सकता है। हम यह भी कह सकते हैं कि यद्यपि कितनी बातें इनमें ऐसी भी हैं जो सर्व साधारण मोमें पाई जाती है। परन्तु कितनी बातें ऐसी है जो जैनमतके सिवा कहीं विशेदरीतिसे नहीं मिलतीं । जैसे अहिंसा । अहिंसाका ' सलमतमें विधान है, इसमें सन्देह नहीं। पर जैनमतमें मानी हुई अहिंसाके साथ अन्यमतमें मानी हुई अहिंसाकी तुलना करनेसे जमीन आशमानका अन्तर दीख पडेगा । अस्तु । जैनमत कल्याणका मार्ग है सही । पर इससे हम भी कुछ लाभ उठाते है-उसके उद्देश्य पर चलते हैं या नहीं ? इसका विचार करना जरूरी है। हमारा यह गर्व कि जैनमत बहुत उत्तम धर्म है, हमारे लिए भी कुछ काम आता है या नहीं ? या केवल दूसरोंको समझानेके लिए ही हम इतनी बातोंका सिलसिला बांध देते हैं ! .

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