Book Title: Jain Tithi Darpan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 24
________________ (.. की श्रद्धा नष्ट हुई दिखाई पड़ती है । वे ही राजाका अनादर करके रोजगहीको पचां गये है तो फिर उनपर विश्वास रखने वालोंमें वैसी 'अदा कैसे संभव हो सकती है ? } हे नाथ! यह मेरी प्रार्थना मेरे लिए नहीं । आपकी सेवापी 'अमृतफलके सिवा मुझे किसी वस्तुकी परवा नहीं। पर चारों ओर जन दृष्टि दौड़ाता हूं तब मुझे सचमुच बड़ा भारी खेद होता है-मेरा हृदय 'द्रवित हो उठता है और इस समय क्या करना चाहिए इसकी सम न पडनेसे सब हिम्मत हार जाता हूं-अधीर हो उठता हूं। • हे रक्षक! आप यह अच्छी तरह जानते हो कि इस धर्मके तीन प्रधान भाग होगये है। परन्तु जब उनके भी अन्तर विमार्गोपर विचार किया जाता है तब आखोंमें आसं आये विना नहीं रहते । इन अन्तर विभागोंने तो इस धर्मके सत्यरूपी शरीरका चूर चेर 'कर डाला है। - अब ऐसा अमृतफल अथवा- संजीवन औषधि कहांसे लाई जाय कि जिससे फिर भी यह शरीर अपनी असली दशा प्राप्त कर सके ! क्रियाओंमेंसे चैतन्य चल बसा है। अब वे खाली खोखलासी हो गई है। सूत्र केवल तोतेकी भांति मुखसे उच्चारण किया जाता है। उसके अर्थ करनेवाले भी उसका ठीक ठीक अर्थ समझते होंमे यह नहीं जान पड़ता । अब तो टीका करनेवाले, शब्दको तोड़ मरोडकर -उसकी व्युतपत्ति करनेवाले और शब्दके खोखलोंको चूंथनेवाले ही पण्डित बहुधा दीख पडते हैं। वे विद्वान वे तत्वज्ञ तो बहुत ही विरले है जो निर्भयता और निःस्वार्थताके साथ वस्तुका वास्तविक "विवेचन करते हों। इन स्वार्थियोंकी लीलासे शब्दकी गंभीरता और

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