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अ०८/ प्र० ३ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ३९
"श्रीमूलसंघद कोण्डकुन्दान्वयद क्राणूर-ग्गण मेषपाषाण-गच्छद श्रीमत्प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवरवर शिष्यरु।" (११२१ ई०)४९
९९० ई० के एक शिलालेख में कुन्दकुन्दान्वय के साथ द्रविणसंघ का भी उल्लेख
___ "द्रविळसंघद --- अद श्रीकोण्डकुन्दान्वयद त्रिकाल-मौनि-भट्टारकशिष्यर् ---।" (लगभग ९९० ई०)५०
कुन्दकुन्दान्वय में वक्रगच्छ का भी अस्तित्व था। ११०० ई० के शिलालेख में कहा गया है-"श्रीमूलसङ्घद देशीयगणद वक्रगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद परियलिय वड्डदेवर बलिय।"५१
ईसा की १२वीं शताब्दी में हुए आचार्य वसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार की प्रशस्ति में स्वयं को कुन्दकुन्दान्वय के गुरुओं का शिष्य बतलाया है-'आसी ससमयपरसमयविदू सिरिकुन्दकुन्दसंताणे ---।' यहाँ कुन्दकुन्दान्वय के साथ किसी संघ, गण या गच्छ का उल्लेख नहीं है।
इन शिलालेखीय और साहित्यिक प्रमाणों से सिद्ध है कि १०वीं शताब्दी ई० के पूर्व तक मूलसंघ में नन्दिसंघ, बलात्कारगण एवं सरस्वतीगच्छ, इनमें से किसी का भी अस्तित्व नहीं था। अतः इण्डियन-ऐन्टिक्वेरी-वाली पट्टावली में १०वीं शताब्दी ई० के पूर्व तक जितने आचार्यों के नाम निर्दिष्ट हैं, वे नन्दिसंघ के नहीं थे। अतः नन्दिसंघ की पट्टावली यदि भट्टारक-परम्परा की पट्टावली मानी जाय, तो उपर्युक्त आचार्य भट्टारक-परम्परा के सिद्ध नहीं होते ।
वस्तुतः ऐसा हुआ है कि जैसे पंचस्तूपान्वय का मुनिसंघ ईसा की ९वीं शताब्दी में 'सेनसंघ' नाम से जाना जाने लगा,५२ वैसे ही १२वीं शताब्दी ई० से कुन्दकुन्दान्वय का मुनिसंघ 'नन्दिगण' या 'नन्दिसंघ' के नाम से अभिहित होने लगा। कुन्दकुन्दान्वय में सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण का विकास तो १०वीं शती ई० में ही हो गया था, क्राणूर् आदि गण तथा वक्र, तिन्त्रिणीक, मेषपाषाण आदि गच्छ बाद में विकसित हुए । बारहवीं शताब्दी ई० से इस नन्दिसंघ में भट्टारकपरम्परा आरम्भ हो गयी । और तब भट्टारक भी अपने को कुन्दकुन्दान्वय, मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ ४९. वही / भा.२ / ले. क्र. २७७ / पृ.४१६ । ५०. वही / भा.२ / ले.क्र.१६६ / पृ.२०७। ५१. वही / भा.१ / ले.क्र.५५ (६९) / पृ.१२२ । ५२. सेनसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख उत्तरपुराण की प्रशस्ति में पाया जाता है। (प्रो. विद्याधर
जोहरापुरकर : भट्टारकसम्प्रदाय / पृ.२६)।
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