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६६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०५
तब 'स्त्री' शब्द का प्रयोग स्तन-जघन आदि अवयवों वाली महिला इस मुख्य अर्थ में नहीं किया जाता, बल्कि स्त्रीसदृश प्रवृत्तियों वाला पुरुष इस गौण या उपचरित अर्थ में किया जाता है। अतः उक्त पुरुष के लिए प्रयुक्त 'स्त्री' शब्द गौण या उपचरित होता है, मुख्य नहीं। पाल्यकीर्ति शाकटायन कहते हैं
अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः (माहुरागमे) सिद्धिः। स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा॥३४॥१३५ शब्दनिवेशनमर्थः प्रत्यासत्त्या क्वचित् कयाचिदतः। तदयोगे योगे सति शब्दस्याऽन्यः कथं कल्प्यः ॥ ३५॥
स्त्रीनिर्वाण-प्रकरण। अनुवाद-"सिद्धि (मोक्ष) के विषय में आदि (प्रधान) आगम (जिनोपदेश) यह है कि एक समय में आठ सौ पुरुषों की सिद्धि होती है और (बीस) स्त्रियों की। (यहाँ 'स्त्री' शब्द से भावस्त्रीरूप अर्थात् स्त्रैणभावयुक्त-पुरुषरूप गौण अर्थ नहीं लिया जा सकता, क्योंकि) शब्द का गौण अर्थ वहीं लिया जाता है, जहाँ मुख्य अर्थ उपपन्न न हो। (यहाँ 'स्त्री' शब्द का 'स्तन-जघनादियुक्त शरीरधारी' यह मुख्यार्थ उपपन्न है, क्योंकि उसे मोक्ष प्राप्त होता है। अतः आगम में द्रव्यस्त्रियों की ही मुक्ति का कथन है)।" (३४)। ___"अर्थ शब्द में अन्तर्निहित होता है, तथापि जब किसी शब्दविशेष या अर्थविशेष के सान्निध्य से मुख्यार्थ अनुपपन्न होता है, तब कहीं शब्द में स्वभावतः न रहनेवाला अर्थ उससे लक्षित होता है। किन्तु यदि शब्द का मुख्यार्थ उपपन्न है, तो उससे गौणार्थ कैसे ग्रहण किया जा सकता है?" (३५)।
इन श्लोकों में भी शाकटायन ने 'स्त्री' शब्द से 'द्रव्यस्त्री' अर्थ ही ग्रहण करने को युक्तिसंगत ठहराया है।
१३५."A secondary meaning is not to be applied where the primary meaning is
appropriate. 'Male' is a secondary meaning of the word 'Woman', 'female' is its only primary meaning. And given this primary meaning, the impossibility of nirvāṇa is not proved for women who are endowed with breasts and birth canals. In this context, the following rule is applicable : "Where both the primary and seconndary meanings are possible, the primary meaning should be accepted". Therefore it is inappropriate to construe "woman" in its secondary meaning. (Even if the secondary meaning were to be applicable, it would still not be proper) to abandon the primary meaning". (Gender And Salvation, by Padmanabh S. Jaini, pp. 76-77, para 97).
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