Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 787
________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७३३ 'गुणधर' के स्थान में 'गणधर' की कल्पना अप्रामाणिक यापनीयपक्ष किन्तु उक्त यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने दिगम्बरपरम्परा में गुणधर के अस्तित्व को झुठलाने के लिए गुणधर नाम को विवादास्पद बनाने का प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं-"यद्यपि यह माना जाता है कि आचार्य गुणधर आर्यमंक्षु के पूर्व हुए थे, किन्तु दिगम्बरपरम्परा में गुणधर-नामक किसी आचार्य का अस्तित्व ही विवादास्पद है। क्योंकि उनके सम्बन्ध में दसवीं शती के जयधवला के इस उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। वैसे जयधवला में जो यह कहा गया है कि गुणधर के मुखकमल से निकली ये गाथाएँ आर्यमंक्षु और नागहस्ती के द्वारा अवधारण की गईं, इससे फलित होता है कि वस्तुतः मूल में गणधर (गणहर) ही होगा और आगे चलकर भ्रान्तिवश उसे गुणधर मान लिया गया होगा।" (जै.ध.या.स./पृ.८४-८५)। दिगम्बरपक्ष मान्य ग्रन्थलेखक के कथन का अभिप्राय यह है कि वीरसेन स्वामी ने जयधवला में कसायपाहुड की गाथाओं को गणधर के ही मुख से निर्गत बतलाया होगा, किन्तु आगे चलकर किसी ने गणधर के स्थान में गुणधर कर दिया होगा। किन्तु इसके समर्थन में उन्होंने कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया। उन्होंने जयधवला की एक भी ऐसी प्रति नहीं बतलायी, जिसमें 'गुणधर' के स्थान में 'गणधर' का उल्लेख हो। इससे सिद्ध है कि यह उनके अपने मन की कल्पना है, प्रमाणसिद्ध सेथ्य नहीं। इसके अतिरिक्त मान्य ग्रन्थलेखक ने मुखकमल से निकली इन शब्दों के प्रयोग के आधार पर भी यह निष्कर्ष निकाला है कि मूल में गणधर शब्द रहा होगा। उनकी इस सूझ से मैं चकित हूँ। आज तक ऐसा कोई शास्त्र मेरे देखने में नहीं आया, जिसमें यह नियम निर्धारित किया गया हो कि 'मुखकमल से निकली हुई' इस शब्दावली का प्रयोग केवल गणधर के साथ ही किया जा सकता है, अन्य व्यक्ति के साथ नहीं। यह तो किसी भी आदरणीय व्यक्ति के प्रति आदर व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त की जानेवाली लोकप्रसिद्ध रूपकालंकारमय शब्दावली है। इससे यह सिद्ध कैसे हो सकता है कि यहाँ मूलतः 'गणधर' शब्द रहा होगा? मान्य ग्रन्थलेखक का यह कथन अपढ़ व्यक्ति के भी गले नहीं उतर सकता। अपने टीकाग्रन्थ के आरंभ में वीरसेन स्वामी ने क्रमशः चन्द्रप्रभ जिनदेव, चौबीस तीर्थंकर, वीरभगवान्, श्रुतदेवी, गणधरदेव और गुणधर आचार्य की स्तुति की है। गणधरदेव For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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