Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 843
________________ शब्दविशेष-सूची द्वितीयखण्डान्तर्गत अष्टम अध्याय से लेकर द्वादश अध्याय तक आये विशिष्ट शब्दों (व्यक्तियों, स्थानों, ग्रन्थों, लेखों, अभिलेखों, कथाओं, सम्प्रदायों, गणगच्छों इत्यादि के वाचक तथा पारिभाषिक शब्दों) की सूची नीचे दी जा रही है। इसमें पादटिप्पणीगत शब्द भी समाविष्ट हैं। दो पृष्ठांकों के बीच में प्रयुक्त योजक-चिह्न (-) बीच के पृष्ठों का सूचक है। अजिनोक्त-सवस्त्र-साधुलिंगी भट्टारक ५४अकर्मक (कर्मरहित) ३६३ ११० अकलङ्कग्रन्थत्रय ५२४ अज्ञातपूर्वधर आचार्य (श्वे. जीवसमास के अकलङ्कदेव (भट्ट) ३४, ४४, १८८, ५२६, कर्ता) ४३४ ६८९-६९३ अद्धासमय (काल) ३६४ अकालवर्ष पृथ्वीवल्लभ राजा (कृष्ण तृतीय) अद्वैतवाद ३३३ २८४, २८५, २८६ अद्वैतानन्द ३३४ अकालवर्ष-पृथुवीवल्लभ का मंत्री २८३ अध्यात्मवाद (निश्चयप्रधान) ३३४ अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् अनगारधर्मामृत (पं० आशाधर) ६०१ __ - भव्यकुमुदचन्द्रिकाटीका ७९ अंगुत्तरनिकायपालि १०७, ११५ १४०, ३१०, - ज्ञानदीपिका पंजिका ६०२ ३१२, ३२०-३२२, ३२४, ३२५,३३० । अनन्तवियोजक ३७१, ३७२, ३७७, ३८२ अंगों और पूर्वो का एकदेश २४०, ७३४ ।। अनन्तवियोजक असंयतसम्यग्दृष्टि ३७८ अङ्गोपाङ्गनामकर्म (पुरुषांगोपांग, स्त्र्यंगोपांग, अनादिमिथ्यादृष्टि को सीधे अप्रमत्त गुणस्थान नपुंसकांगोपांग) ६३५, ६३६ की प्राप्ति ३८१ अचेलपरम्परा : ७०८ अनिश्चयवाद (संजय बेलट्ठपुत्त का मत) अजय, अजत (अविरत-श्वे.) ७६७ अजित तीर्थंकर (पुराणतिलकम् : महाकवि अनुयोगद्वारसूत्र ५६०, ५५८ रन्न) १११ अनेकान्त (वस्तुधर्म) ३३९, ४५० अजितप्रसाद जैन (सम्पादक-शोधादर्श) : अनेकान्त (मासिक पत्र) ११२, १९७, २१८, १४८ २३९, २६३, ५१७, ५२१, ५५०, ६८६ ४४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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