Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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खवगसेढी (श्वे० मुनि श्री गुणरत्नविजय)
७६१, ७६४, ७८३ खुड्डक, खुड्डग (क्षुल्लक = नवदीक्षित युवा
साधु-श्वे०) ६४०
गजसिंह राठौड़ ३१७ गणधर ७३३ गणधर (आचार्य) ११९ गणेशप्रसाद जी वर्णी (पण्डित) ६८६ गण्डादित्य, गण्डरादित्य (राजा) ८२, ८३
९१, ९३, १०० गमकगुरु (परम्परागुरु) १८२, ५३८, ५४० । गुण (गुणस्थान) २३६ गुणचन्द्र भटार ३७ गुणट्ठाण (षट्खण्डागम) २३६ गुणधर (आचार्य) १८१, २४०, ३३२,७१३,
७१५, ७३०, ७३१ गणधर-मुखकमल-विनिर्गत ७३४ गुणन्धर (आर्य) ७५६, ७५७ गुणभद्र (आचार्य) १८३, १८५ गुणश्रेणिनिर्जरा (असंख्येय-गुण-निर्जरा)
३७१, ३७२, ३७८ गुणश्रेणिनिर्जरा का काल ३७९ गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र ३७१, ३८३, ३८४, ३८९,
13.३८४.३८९, ३९०-३९३ गुणश्रेणिनिर्जरास्थान ३७१, ३७२, ३८५, ४११,
६०५ गुणस्थान ३७२, ३८९, ४०३, ५९१ गुणस्थान : ज्ञानदर्शनचारित्ररूप जीवस्वभाव
विशेष ४२९
शब्दविशेष-सूची / ७९५ गुणस्थान : दर्शनज्ञानचारित्ररूप परम्परा ३९०,
४१९ गुणस्थान : परमप्रासाद-शिखरारोहण-सोपान
कल्प ४२९ गुणस्थाननाम-सदृश नाम (भगवतीसूत्र और
प्रज्ञापना में) ४३१, ४३२ गुणस्थान मोक्ष के सोपान ३९०, ४१८ गुणस्थानविकासवाद (वादी) ३७१, ३६९,
३८४, ३८५, ३८८, ३८९, ३९१,
३९२, ४११ गुणस्थानसिद्धान्त ३८१, ५८४, ५८६-५८८,
६०६, ६१४, ७१४, ७२३ गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण (डॉ०
सागरमल जैन) ३७७, ३८१, ३८५,
४१५, ५५६ गुणस्थानों के ज्ञाता तीर्थंकर ४२६ गुप्तिगुप्त (नामान्तर–अर्हद्वलि, विशाखा
चार्य) ७, १४, २६, २७, ४७, ३११ गुरु को कन्धे पर बैठाकर ले जानेवाला
शिष्य ६१८ गुरुपर्वक्रमवर्णनम् (गुणरत्नसूरि) ४९९ गृध्रपिच्छ (आचार्य, तत्त्वार्थसूत्रकार) ३६,
१८१, १८८ गृहस्थ (गृहलिंगी)-मुक्तिनिषेध ६०४ गृहिलिङ्ग-सिद्ध मरुदेवी-प्रभृति (श्वे०)
६१६ गोम्मटसार ९३ गोम्मटसार कर्मकाण्ड ११२, ११३, ३७७,
६५० - जीवतत्त्वप्रदीपिका-टीका ७०३ - संस्कृतटीकाकार-प्रशस्ति (गो.का./ भाग २) ६९६
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