Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 831
________________ अ० १२ / प्र०४ कसायपाहुड / ७७७ यहाँ कर्मप्रकृति-चूर्णिकार ने अपने सम्प्रदाय के अनुसार मिथ्यात्वगुणस्थान के अन्तिम समय में मिथ्यात्व के द्रव्य के तीन भाग हो जाते हैं, इस मत की पुष्टि करने के लिए उक्त वाक्यरचना के मध्य में होहित्ति इतना पाठ अधिक जोड़ दिया है। बाकी की पूरी वाक्यरचना कषायप्राभृतिचूर्णि से ली गई है, यह कर्मप्रकृति की १८ और १९ वीं गाथाओं तथा उनकी चूर्णियों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट प्रतीत होता है। ___ यह एक उदाहरण है। पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि का उपशमना-प्रकरण तथा क्षपणाविधि कषायप्राभृतचूर्णि के आधार से लिपिबद्ध करते हुए भी कषायप्राभृतचूर्णि से श्वेताम्बरसम्प्रदाय के अनुसार मतभेद के स्थलों को यथावत् कायम रखा गया है। आवश्यकता होने पर हम इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालेंगे। ५. पाँचवाँ उल्लेख भी सप्ततिकाचूर्णि का है। इसमें मोहनीय के चार के बन्धक के एक का उदय होता है. इस मत को सप्ततिकाचर्णिकार ने स्वीकार कर उसकी पुष्टि कषायप्राभृत आदि से की है। तथा साथ ही दूसरे मत का भी उल्लेख कर दिया है। सो उक्त चूर्णिकार के उक्त कथन से इतना ही ज्ञात होता है कि उनके समक्ष कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि थी। इस प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के पाँच उल्लेख हैं, जिनमें कषायप्राभृत के आधार से उसके नामोल्लेखपूर्वक प्रकृत विषय की पुष्टि तो की गई है, परन्तु इन उल्लेखों पर से एक मात्र यही प्रमाणित होता है कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय में दर्शन-चरित्रमोहनीय की उपशमना-क्षपणाविधि की प्ररूपणा करनेवाला सर्वांग साहित्य लिपिबद्ध न होने से इसकी पूर्ति दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचित कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि से की गई है। परन्तु ऐसा करते हुए भी उक्त शास्त्रकारों ने उन दोनों को श्वेताम्बर-परम्परा का स्वीकार करने का साहस भूलकर नहीं किया है। यह तो केवल उक्त प्रस्तावना-लेखक श्वे० मुनि हेमचन्द्रविजय जी का ही साहस है, जो बिना प्रमाण के ऐसा विधान करने के लिए उद्यत हुए हैं। वस्तुतः देखा जाय तो एक तो कुछ अपवादों को छोड़कर कर्मसिद्धान्त की प्ररूपणा दोनों सम्प्रदायों में लगभग एक-सी पाई जाती है, दूसरे जिन विषयों की पुष्टि में श्वेताम्बर आचार्यों ने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि का प्रमाणरूप में उल्लेख किया है, उन विषयों का सांगोपांग विवेचन श्वेताम्बर-परम्परा में उपलब्ध न होने से ही उन आचार्यों को ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ा है, इसलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने साहित्य में कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि का प्रकृत विषयों की पुष्टि में उल्लेख किया, मात्र इसलिए उन्हें श्वेताम्बर आचार्यों की कृति घोषित करना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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