Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 835
________________ अ०१२/प्र०४ कसायपाहुड / ७८१ कषाय और अनुभाग में भेद बतलानेवाले नागहस्ति श्रवण के उपदेश को प्रवाह्यमान बतलाया है। (पृ. ६६ और ७१-७२)। २. उक्त दोनों आचार्यों का उपदेश प्रवाह्यमान होने का प्रतिपादक वचन-"तेसिं चेव भयवंताणमज्जमखु-णागहत्थिणं पवाइज्जतेणुवएसेण---।" (पृ. २३)। यहाँ क्रोधादि चारों कषायों के काल के अल्पबहुत्व को गतिमार्गणा और चौदह जीवसमासों में बतलाने के प्रसंग से उक्त वचन आया है। सो यहां चूर्णिसूत्रकार ने गतिमार्गणा और चौदह जीवसमासों में मात्र प्रवाह्यमान उपदेश का निर्देश किया है, अप्रवाह्यमान उपदेश का नहीं। जयधवलाकार ने भी चूर्णिसूत्रों का अनुसरण कर दोनों स्थानों में मात्र प्रवाह्यमान उपदेश का खुलासा करते हुए "तेसिं चेव उवदेसेण चोइसजीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि।" (पृ.२३) इस चूर्णिसूत्र के व्याख्यान के प्रसंग से उसमें आये हुए तेसिं चेव इस पद का व्याख्यान करते हुए उक्त पद से उक्त दोनों भगवन्तों का ग्रहण किया है। ३. इस प्रकार उक्त दो प्रकार के उल्लेख तो ऐसे हैं, जिनसे हमें उनमें से कौन उपदेश प्रवाह्यमान है और कौन उपदेश अप्रवाह्यमान है, इस बात का पता लगने के साथ जयधवलाटीका से उनके उपदेष्टा आचार्यों का भी पता लग जाता है। किन्तु चूर्णिसूत्रों में प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान के भेदरूप कुछ ऐसे भी उपदेश संकलित हैं, जिनके विषय में जयधवलाकार को विशेष जानकारी नहीं थी। अतः जयधवलाकार ने इनका स्पष्टीकरण तो किया है, परन्तु आचार्यों के नामोल्लेखपूर्वक उनका निर्देश नहीं किया। इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस विषय में जयधवलाकार के समक्ष उपस्थित साहित्य में उक्त प्रकार का विशेष निर्देश नहीं होगा, अतः उन्होंने दोनों उपदेशों का स्पष्टीकरण मात्र करना उचित समझा। जयधवला के आगे दिये जानेवाले इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है "जो एसो अणंतरपरूविदो उवएसो सो पवाइज्जदे ... । अपवाइज्जंतेण पुण उवदेसेण केरिसी पयदपरूवणा होदि त्ति एवं विहासंकाए णिण्णयकरण-ट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं।" (पृ. ११६)। इस उल्लेख में दो प्रकार के उपदेशों का निर्देश होते हुए भी चूर्णिकार की दृष्टि में उनके प्रवक्तारूप में कौन प्रमुख आचार्य विवक्षित थे, इसकी आनुपूर्वी से लिखित या मौखिक रूप में सम्यक् अनुश्रुति प्राप्त न होने के कारण जयधवलाकार ने मात्र उनकी व्याख्या कर दी है। यह है जयवधला की व्याख्यानशैली। इसके टीकाकार को जिस विषय का किसी न किसी रूप में आधार मिलता गया, उसकी वे उसके साथ व्याख्या करते हैं और For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900