Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 839
________________ अ०१२/प्र०४ कसायपाहुड / ७८५ ही सूचित करता है कि इस ग्रन्थ के साथ आचार्य यतिवृषभ का किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध अवश्य ही होना चाहिए। बहुत सम्भव है धवला में जिस त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ का उल्लेख पाया जाता है, उसकी रचना स्वयं यतिवृषभ आचार्य ने की हो और उसको मिलाकर वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ का संग्रह किया गया हो। अन्यथा उक्त मंगलगाथा को वहाँ लाकर रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उक्त गाथा के साथ वहाँ जो 'चुण्णिस्सरूव' इत्यादि गाथा पाई जाती है, उसमें आये हुए चुण्णिस्स पद से भी इस तथ्य को समर्थन होता है। आचार्य वीरसेन ने अपनी जयधवला टीका में और इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में इसकी चर्चा नहीं की, इसका कारण है। बात यह है कि कषयप्राभृत और उसके चूर्णिसूत्रों की टीका का नाम जयधवला है, अतः उससे सम्बन्धित तथ्यों का ही खुलासा किया गया है। यही स्थिति श्रुतावतार में इन्द्रनन्दि की भी रही है। अतः इन दोनों आचार्यों ने यदि अपनी-अपनी रचनाओं में आचार्य यतिवषभ की रचनारूप से त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ का उल्लेख नहीं किया, तो इससे उक्त तथ्य को फलित करने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। २. इनद्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में आचार्य गुणधर और आचार्य धरसेन को लक्ष्यकर लिखा है गुणधरधसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः। - न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्॥ १५१॥ गुणधर और धरसेन के अन्वयस्वरूप गुरुओं के पूर्वापर क्रम को हम नहीं जानते, क्योंकि उनके अन्वय अर्थात् गुरुजनों का कथन करनेवाले आगम (लिखित) और मुनिजनों का अभाव है। आचार्य वीरसेन ने भी श्रीधवला में धरसेन आचार्य का और श्रीजयधवला में गुणधर आचार्य का बहुमान के साथ उल्लेख किया है। किन्तु उन्होंने उनकी गणना पट्टधर आचार्यों में न होने से उनके गुरुओं का उल्लेख नहीं किया है। यह सम्भव है कि इसी कारण से इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में उक्त वचन लिखा है। किन्तु इन दोनों स्थलों को छोड़कर अन्यत्र इन दोनों आचार्यों का तथा पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य का नामोल्लेख न मिलने का कारण यह है कि एक तो दिगम्बरपरम्परा में इस तरह के इतिहास के संकलित करने की पद्धति प्रायः इन आचार्यों के बहुत काल बाद प्रारम्भ हुई। कारण वनवासी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु होने के कारण वे सब प्रकार की लौकिक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपना शेष जीवन स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन में ही व्यतीत करते रहते थे। कदाचित् ग्रन्थादि के निर्माण का विकल्प होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900