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६९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र० ७
होते हैं और इसलिये इन गुणस्थानों को छोड़कर अपर्याप्त अवस्था में भाववेद या भावलिङ्ग नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यणियों की तरह अपर्याप्त मनुष्यणियों के १४ भी गुणस्थान कहे जाते और इसलिये वहाँ भाववेद या भावलिङ्ग की विवक्षाअविवक्षा का प्रश्न नहीं उठता। हाँ, पर्याप्त अवस्था में भाववेद होता है, इसलिये उसकी विवक्षा - अविवक्षा का प्रश्न जरूर उठेगा, अतः वहाँ भावलिङ्ग की विवक्षासे १४ और द्रव्यलिङ्ग की अपेक्षा से प्रथम के पाँच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं । इन दो निष्कर्षों पर से स्त्रीमुक्ति-निषेध की मान्यता पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है और यह मालूम हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति-निषेध की मान्यता कुन्दकुन्द की अपनी चीज नहीं है, किन्तु वह भगवान् महावीर की ही परम्परा की चीज है और जो उन्हें उक्त सूत्रों- भूतबलि और पुष्पदन्त के प्रवचनों के पूर्वसे चली आती हुई प्राप्त हुई है।
" तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यहाँ सामान्य मनुष्यणी का ग्रहण है, द्रव्यमनुष्यणी या द्रव्यस्त्रीका नहीं, क्योंकि अकलङ्कदेव भी पर्याप्त मनुष्यणियों के १४ गुणस्थानों का उपपादन भावलिङ्ग की अपेक्षा से करते हैं, और द्रव्यलिङ्ग की अपेक्षा से पाँच ही गुणस्थान बतलाते हैं । यदि सूत्र में द्रव्यमनुष्यणी या द्रव्यस्त्रीमात्र का ग्रहण होता, तो वे सिर्फ पाँच ही गुणस्थानों का उपपादन करते, भावलिङ्गकी अपेक्षा से १४ का नहीं। इसलिये जिन विद्वानों का यह कहना है कि " सूत्र में पर्याप्त शब्द पड़ा है, वह अच्छी तरह सिद्ध करता है कि द्रव्यस्त्री का ही यहाँ ग्रहण है, क्योंकि पर्याप्तियाँ सब पुद्गलद्रव्य ही हैं पर्याप्त स्त्री का ही द्रव्यस्त्री अर्थ है, ' १४९ संगत प्रतीत नहीं होता। क्योंकि अकलंकदेव के विवेचन से प्रकट है कि यहाँ 'पर्याप्तस्त्री' का अर्थ द्रव्यस्त्री नहीं है और न द्रव्यस्त्री का प्रकरण है । किन्तु सामान्यस्त्री उसका अर्थ है और उसी का प्रकरण है और भावलिङ्ग की अपेक्षा उनके १४ गुणस्थान हैं । दूसरे यद्यपि पर्याप्तियाँ पुद्गल हैं, लेकिन पर्याप्तकर्म तो जीवविपाकी है, जिसके उदय होने पर ही 'पर्याप्तक' कहा जाता है। अतः 'पर्याप्त' शब्द का अर्थ केवल द्रव्य नहीं है, भाव भी है।
वह
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'अतः राजवार्त्तिक के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि षट्खंडागम के ९३वें सूत्र में 'संजद' पद की स्थिति आवश्यक एवं अनिवार्य है। यदि 'संजद' पद सूत्र में न हो, तो पर्याप्त मनुष्यणियों में १४ गुणस्थानों का अकलंकदेव का उक्त प्रतिपादन सर्वथा असंगत ठहरेगा और जो उन्होंने भावलिङ्ग की अपेक्षा उसकी उपपत्ति बैठाई है तथा द्रव्यलिङ्ग की अपेक्षा ५ गुणस्थान ही वर्णित किये हैं, वह सब अनावश्यक
१४९. देखिए, पं. रामप्रसाद जी शास्त्री के विभिन्न लेख और 'दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण' / द्वितीय अंश / पृ. ८ और पृ. ४५ ।
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