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६८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०६ डॉक्टर सा० लिखते हैं-"धवलाकार स्वयं भी इस स्थान पर शंकित था, क्योंकि इससे स्त्रीमुक्ति का समर्थन होता है। अतः उसने अपनी टीका में यह प्रश्न उठाया है कि मनुष्यनी के सन्दर्भ में सप्तम ४० गुणस्थान मानने पर उसमें १४ गुणस्थान भी मानने होंगे और फिर स्त्रीमुक्ति भी माननी होगी। किन्तु जब देव, मनष्य, तिर्यंच आदि किसी के भी सम्बन्ध में मूल ग्रन्थ में द्रव्य और भाव की चर्चा का प्रसंग नहीं उठाया गया, तो टीका में मनुष्यनी के सम्बन्ध में यह प्रसंग उठाना केवल साम्प्रदायिक आग्रह का ही सूचक है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०२)।
इस विषय में मेरा नम्र निवेदन है कि धवलाकार रञ्चमात्र भी शंकित नहीं थे। उनके सामने तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक के स्पष्ट प्रमाण थे, जिनमें 'मानुषी' शब्द का प्रयोग गुणस्थानों के प्रसंग में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में किया गया है और द्रव्यमानुषी में आदि के पाँच गुणस्थान तथा भावमानुषी में चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं। अतः वीरसेन स्वामी स्वयं तो इस विषय में बिलकुल निःशंक थे, हाँ, उन्होंने टीका में जो शंकाएँ उठायी हैं, वे उन लोगों की दृष्टि से उठायी हैं, जो दिगम्बरपरम्परा में 'मणुसिणी' शब्द के विशिष्ट प्रयोग से अपरिचित हैं, क्योंकि ऐसे लोग यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि यहाँ 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग भावस्त्री के अर्थ में भी हो सकता है। अतः वे उसे मात्र लोकप्रसिद्ध द्रव्यस्त्री-अर्थ का वाचक मानकर इस भ्रान्ति से ग्रस्त हो सकते हैं कि षट्खण्डागम में द्रव्यस्त्री की मुक्ति का प्रतिपादन है। इसीलिए वीरसेन स्वामी ने विभिन्न प्रश्नोत्तरों के द्वारा यह बात स्पष्ट कर दी है कि चर्चित सूत्र में जो मणुसिणी में चौदह गुणस्थानों का कथन किया गया है, वह भावस्त्री की अपेक्षा किया गया है, द्रव्यस्त्री की अपेक्षा केवल आदि के पाँच गुणस्थान बतलाये गये हैं। निम्नलिखित उद्धरण में भी उन्होंने यह बात स्पष्ट की है
"मणुसिणीणां भण्णमाणे अत्थि चोद्दस गुणट्ठाणाणि, दो जीवसमासा, छ पज्जत्तीओ, छ अपज्जत्तीओ, दसपाण-सत्तपाणा, चत्तारि सण्णाओ खीणसण्णा वि अत्थि, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, एगारह जोगा अजोगो वि अत्थि, एत्थ आहार-आहारमिस्सकायजोगा णत्थि। किं कारणं? जेसिं भावो इत्थिवेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते वि जीवा संजमं पडिवजंति। दव्वित्थिवेदा पुण संजमं ण पडिवजंति, सचेलत्तादो। भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धी समुप्पज्जदि दव्व-भावेहि पुरिसवेदाणं चेव समुप्पज्जदि तेणित्थिवेदे णिरुद्ध आहारदुगं णत्थि। तेण एगारह जोगा भणिदा। इत्थिवेदो अवगदवेदो वि अत्थि, एत्थ भाववेदेण पयदं ण दव्ववेदेण। किं कारणं? 'अवगदवेदो वि अत्थि' त्ति वयणादो।" (धवला / पु.२ / १,१/ पृ.५१५)। १४०. यहाँ 'सप्तम' के स्थान में 'संयत' होना चाहिए।
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