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अ०१०/प्र०४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३३७ (कारण) की ही सत्यता का अवधारण किया गया है। वाचारम्भण शब्द से घट, शराव आदि विकार समूह की असत्यता बतलायी गयी है। अर्थात् घट, शराव आदि नामों का ही अस्तित्व होता है, घट, शराव आदि वस्तुओं का नहीं। वस्तुदृष्टि से केवल मिट्टी की सत्ता होती है। इसी प्रकार 'ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यम्' (यह सम्पूर्ण जगत् इस आत्मा से ही व्याप्त है, अतः वही सत्य है) इस दान्तिक में एकमात्र परमकारणभूत ब्रह्म की ही सत्यता का अवधारण किया गया है। अतः एकत्व (अद्वैत) ही सत्य है, नानात्व असत्य।"
इस तरह वेदान्तीय अद्वैतवाद में ब्रह्म में गुणपर्यायों के अस्तित्व को अस्वीकार कर उसकी स्वगत अनेकात्मकता का भी निषेध किया गया है।
वेदान्त में ब्रह्म को कूटस्थनित्य विशेषण दिया गया है, जो उसमें विक्रिया (परिणमन) के निषेध द्वारा पर्यायों के उत्पाद-व्यय का निषेधक है। १२७
इस प्रकार अद्वैतवेदान्तगत ब्रह्म के स्वरूप में गुणपर्यायों का अस्तित्व मान्य न होने से वहाँ गुणपर्यायरूप द्वैत नहीं है, अन्य ब्रह्म (आत्मा) का अस्तित्व स्वीकार्य न होने से सजातीय द्वैत नहीं है तथा पुद्गलादिरूप अचेतन पदार्थों की सत्ता इष्ट न होने से विजातीय द्वैत भी नहीं है। यही बात पञ्चदशी की निम्न कारिकाओं में कही गई है
वृक्षस्य स्वगतो भेदः पत्रपुष्पफलादिभिः। वृक्षान्तरात् सजातीयो विजातीयः शिलादितः॥ २/२०॥ तथा सद्वस्तुनो भेदत्रयं प्राप्तं निवार्यते।
ऐक्यावधारणाद्वैत-प्रतिषेधैस्त्रिभिः क्रमात्॥ २/२१॥ ____ अनुवाद-"जिस प्रकार वृक्ष का पत्रपुष्पफलादि की अपेक्षा स्वगत भेद होता है, दूसरे वृक्ष से सजातीय भेद होता है और शिला आदि से विजातीय भेद होता है, उसी प्रकार सद्ब्रह्मरूप वस्तु में यदि कोई इस भेदत्रैविध्य की कल्पना करे, तो श्रुति एकमेवाद्वितीयम् कहकर 'एकम्' से ऐक्य, ‘एव' से अवधारण तथा 'अद्वितीय' से द्वैतनिषेध के द्वारा इस भेदत्रैविध्य का निराकरण करती है।"
किन्तु कुन्दकुन्द ने आत्मद्रव्य में गुणपर्यायों का अस्तित्व प्रतिपादित कर गुणपर्याय-रूप द्वैत स्वीकार किया है, अनन्त आत्माओं की सत्ता का वर्णन कर सजातीय द्वैत भी मान्य किया है तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल
१२७. "पुरुषः --- विक्रियाहेत्वाभावाच्च कूटस्थनित्यः।" ब्रह्मसूत्र-शाङ्करभाष्य / अध्याय १ ।
पाद १/ अधिकरण ४ / सूत्र ४/ पृ.२० ।
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