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४२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०५ यह मानना होगा कि जीवों में इन परिणामों की उत्पत्ति ईसा की तीसरी-चौथी शती के बाद से होनी शुरू हुई है, उसके पहले तक जीव में ये परिणाम उत्पन्न नहीं होते थे, अर्थात् ऋषभादि तीर्थंकरों के काल में न तो कोई जीव सम्यग्दृष्टि अवस्था को प्राप्त होता था, न देशविरत अवस्था को, न प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि को। इन चौदह अवस्थाओं को प्राप्त हुए बिना ही वे मुक्त हो जाते थे। किन्तु ऐसा मानने का गुणस्थानविकासवादी विद्वान् के पास कोई आधार नहीं है। श्वेताम्बर-आगमों में इन चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, तो भी कोई जैन यह नहीं मान सकता कि ऋषभादि तीर्थंकर सम्यग्दृष्टि नहीं हुए थे, देशविरत (श्रावक) नहीं हुए थे, प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत (मुनि) नहीं हुए थे, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति-बादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थाओं को प्राप्त नहीं हुए थे। यदि गुणस्थानविकासवादी विद्वान् यह मानते हैं कि ऋषभादि तीर्थंकर इन अवस्थाओं को प्राप्त होने के बाद ही मुक्त हुए थे, तो उन्हें यह मानना होगा कि गुणस्थानसिद्धान्त ऋषभादि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। तत्त्वार्थसूत्र में इन सभी चौदह अवस्थाओं का वर्णन है, जिनके उदाहरण पूर्व में दिये जा चुके हैं और आगे भी द्रष्टव्य हैं। यह इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि जिनागम में गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल के पूर्व से विद्यमान थी, वह उसके रचनाकाल के बाद विकसित नहीं हुई।
गुणस्थानसिद्धान्त का कपोलकल्पित विकासक्रम गुणस्थानविकासवादी विद्वान् ने ग्रन्थों में गुणस्थान के सभी भेदों का उल्लेख होने और न होने तथा उनके साथ 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग किये जाने और न किये जाने के आधार पर गुणस्थानसिद्धान्त के क्रमिक विकास की कल्पना की है
और तदनुसार ग्रन्थों के रचनाकालविषयक पूर्वापरत्व का निर्धारण किया है। 'जीवसमास' की भूमिका (पृ.V-X) में उन्होंने इस विकासक्रम को दो सारणियों में दर्शाया है और इसे 'गुणस्थान-सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम' तथा 'गुणस्थान-सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास' नामों से अभिहित किया है।
किन्तु यह गुणस्थानसिद्धान्त का ऐतिहासिक विकासक्रम नहीं, अपितु कपोलकल्पित विकासक्रम है, क्योंकि विकासक्रम के निर्णायक सभी हेतु अप्रामाणिक हैं। यह नीचे लिखे हेतुओं से सिद्ध होता है।
१. किसी ग्रन्थ में गुणस्थान के सभी भेदों का उल्लेख न होना गुणस्थानसिद्धान्त के अविकसित होने का प्रमाण नहीं है, बल्कि इस बात का सबूत है कि ग्रन्थ के
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