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अ०११/प्र०२
षट्खण्डागम / ५५५ ने प्रवचनसार के आदि में जो
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं॥ ४॥ यह पंचनमस्कार निबद्ध किया है, वह षट्खण्डागम के उपर्युक्त प्रसिद्ध पंचनमस्कार मंत्र का ही अनुकरण है। उसे उन्होंने निबद्ध (स्वरचित) बनाने के लिए कुछ शाब्दिक परिवर्तन किया है, आइरियाणं के स्थान में गणहराणं तथा उवज्झायाणं की जगह अज्झावयवग्गाणं (अध्यापकवर्गेभ्यः) का प्रयोग किया है। यह कुन्दकुन्द के 'षट्खण्डागम' से परवर्ती होने का प्रमाण है।
२. षट्खण्डागम में गुण एवं ठाण (स्थान) शब्दों के अतिरिक्त जीवसमास शब्द का प्रयोग गुणस्थान के अर्थ में हुआ है। किन्तु जीव के एकेन्द्रियादि भेदों के लिए न तो 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग किया गया है, न 'जीवस्थान' का और न 'जीवनिकाय' का।५ उक्त जीवभेदों के लिए 'जीवस्थान' (जीवट्ठाण) एवं जीवनिकाय' शब्दों का व्यवहार सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। यह इस बात का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है कि षटखण्डागम की रचना कुन्दकुन्द के पूर्व हुई है। ( देखिए , अध्याय १० / प्रकरण १ / शीर्षक ४.३)। यतः षट्खण्डागम की रचना कुन्दकुन्द से पूर्व हुई है और कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शती के उत्तरार्ध एवं ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध में हुए हैं, अतः सिद्ध है कि षट्खण्डागम उनसे पहले अर्थात् ईसापूर्व प्रथम शती के पूर्वार्ध में रचा गया है।
विक्रम की पाँचवीं शती के मत का निरसन डॉ. सागरमल जी ने भी अपनी दोलायमान मन:स्थिति के बीच धरसेन के अनेक काल-विकल्पों में से ई० सन् ५७ (वीर नि० सं० ५८४) भी एक विकल्प स्वीकार किया है। किन्तु , वे इस पर स्थिर नहीं रह सके और षट्खण्डागम का रचनाकाल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी घोषित कर दिया। इसका प्रयोजन था षट्खण्डागम
और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को तत्त्वार्थसूत्र से उत्तरकालीन सिद्ध करना। क्योंकि अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम और कुन्दकुन्दसाहित्य १५. टीकाकार आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का नाम 'जीवट्ठाण' (जीवस्थान) रखा है, और वहाँ वह गुणस्थानों तथा मार्गणाओं की अपेक्षा सत्-संख्या आदि रूप से जीवतत्त्व की मीमांसा करनेवाले शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त है, जीव के एकेन्द्रियादि चौदह भेदों के अर्थ में नहीं। (देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण १/ पादटिप्पणी ४४)।
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