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६२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०४ महादण्डक का वर्णन है। षट्खण्डागम (पुस्तक ५) के अन्तरानुगम (देव-अन्तर प्ररूपण) में आये ९१वें सूत्र (पृ.६१) में भी शतार नामक ग्यारहवें कल्प का नाम है, जिससे स्वर्गों की संख्या सोलह है, यह सूचित होता है।
यद्यपि दिगम्बरपरम्परा में इन्द्रों और उनके अधिकृत प्रदेशों की अपेक्षा बारह कल्पों की मान्यता भी इष्ट है, इसी अपेक्षा से इस परम्परा के तिलोयपण्णत्ती और वरांगचरित जैसे प्राचीन ग्रन्थों में बारह कल्पों का भी उल्लेख है, तथापि श्वेताम्बरपरम्परा में केवल बारह कल्पों की ही मान्यता है, जिसका अनुसरण यापनीयसम्प्रदाय ने किया है। अतः षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा से भिन्न दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, इसकी पुष्टि करनेवाला यह एक अन्य प्रमाण है। दिगम्बरपरम्परा में कल्पों की संख्या १६ और १२ दोनों मान्य है, यह बात त्रिलोकसार की ४५२, ४५३ और ४५४ क्रमांकवाली तीन गाथाओं से भली-भाँति स्पष्ट हो जाती है।
__षट्खण्डागम में सोलह कल्पों की स्वीकृति का इतना स्पष्ट एवं बहुशः उल्लेख होने पर भी माननीय डॉ० सागरमल जी लिखते हैं कि षट्खण्डागम में बारह स्वर्गों की ही मान्यता है, जो उसे दिगम्बरपरम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा का सिद्ध करती है। पता नहीं डॉक्टर सा० से यह भूल कैसे हो गई! और इस भूल के आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम को छठी शती ई० में रचित श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास पर आधारित घोषित कर दिया है, क्योंकि उसमें भी बारहकल्पों की ही मान्यता है।७८
षट्खण्डागम में नव अनुदिश मान्य षट्खण्डागम के यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ न होने का एक प्रमाण यह है कि यापनीय-मान्य श्वेताम्बरग्रन्थों में अनुदिश नामक नौ विमान स्वीकार नहीं किये गये हैं, जब कि षट्खण्डागम में स्वीकृत हैं। उपाध्याय मुनि श्री आत्माराम जी ने तत्त्वार्थसूत्रजैनागम-समन्वय नामक ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद में यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि आगमग्रन्थों ने नव अनुदिशों का अस्तित्व नहीं माना है।९ श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास में भी अनुदिशों का उल्लेख नहीं है। षट्खण्डागम में नौ अनुदिश स्वर्गों का वर्णन निम्नलिखित सूत्रों में मिलता है७६. अनेकान्त' मासिक / नवम्बर-दिसम्बर १९४३ ई० / पृ. ३४२।। ७७. जीवसमास / अनुवादिका-साध्वी विद्युत्प्रभाश्री / भूमिका पृ. XII । ७८. वही, भूमिका / पृ. XI-XII । ७९. देखिए , उक्त ग्रन्थ का पृ.११९ । ८०. देखिए , जीवसमास / गाथाएँ २०-२१ तथा भूमिका / पृ. XII ।
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