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अ०११/प्र०४
षट्खण्डागम/६४७
"मनुष्यगतौ मनुष्येषु पर्याप्तकेषु चतुर्दशापि गुणस्थानानि भवन्ति। अपर्याप्तकेषु त्रीणि गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्ट्याख्यानि। मानुषीषु पर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति, भावलिङ्गापेक्षया, न द्रव्यलिङ्गापेक्षया। द्रव्यलिङ्गापेक्षया तु पञ्चाद्यानि। अपर्याप्तिकासु द्वे आद्ये,सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात्।" (त.रा.वा./९/७/११ / पृ.६०५)।
अनुवाद-"मनुष्यगति में पर्याप्तक मनुष्यों में चौदहों गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्तकों में तीन गुणस्थान होते हैं : मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि। पर्याप्तक मानुषियों में चौदहों गुणस्थान होते हैं, किन्तु भावलिंग की अपेक्षा, न कि द्रव्यलिंग की अपेक्षा। द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो आदि के पाँच ही होते हैं। अपर्याप्तक मानुषियों में शुरू के दो ही गुणस्थान संभव हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के साथ जीव का स्त्रीरूप में जन्म नहीं हो सकता।"
इस निरूपण में अकलंकदेव ने मानुषियों के दो भेद किये हैं : भावलिंगी और द्रव्यलिंगी। और इस भेद के आधार पर ही भावस्त्रीलिंगी मानुषियों में चौदह गुणस्थानों की संभावना बतलायी है। आगे तो ऐसा भेद किये बिना ही 'अपर्याप्तिकासु द्वे आद्ये' कहकर अपर्याप्तक मानुषियों में तीसरे गुणस्थान से लेकर शेष गुणस्थानों का अभाव बतलाया है, किन्तु यहाँ भी 'मानुषी' शब्द में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री के भेद गर्भित हैं, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में इन दोनों में ही आदि के दो छोड़कर शेष गुणस्थान नहीं होते। इस तरह भट्ट अकलंकदेव भी 'मानुषी' शब्द को द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों का वाचक मानते हैं।
आधुनिक विद्वानों ने भी 'मनुसिणी' या 'मानुषी' शब्द को दोनों प्रकार की स्त्रियों का वाचक माना है। न्यायसिद्धान्तशास्त्री स्व. पं० पन्नालाल जी सोनी, जो 'षट्खण्डागम भावप्रधान-निरूपणशैली का ग्रन्थ है', इस मान्यता के सुदृढ़ समर्थक थे, लिखते हैं
"मनुसिणी दो तरह की होती है : द्रव्यमनुसिणी और भावमनुसिणी। इसी तरह स्त्रीवेद भी दो तरह का होता है : द्रव्यस्त्रीवेद और भावस्त्रीवेद। (षट्खण्डागम के) सूत्रों में सामान्यतः 'मनुसिणी' और 'स्त्रीवेद' पद प्रयुक्त हुए हैं। इन पदों पर से सन्देह हो जाता है कि यहाँ पर द्रव्यमनुसिणी ही ली गई है या भावमनुसिणी? इसी तरह द्रव्यस्त्रीवेद लिया गया है या भावस्त्रीवेद? वेदों में तो सर्वत्र भाववेद की अपेक्षा से कथन किया गया है, परन्तु मनुसिणी में कहीं द्रव्य की अपेक्षा और कहीं भाववेद की अपेक्षा कथन है। ऐसे अवसर पर सन्देह हो जाता है। इस सन्देह को दूर करने के लिए 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति न हि सन्देहादलक्षणम्' इस परिभाषा का अनुसरण किया जाता है। इसका आशय है 'व्याख्यान से, विवरण से, टीका से, विशेष प्रतिपत्ति
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