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अ०११/प्र०४
षट्खण्डागम / ६४३ "मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणी-मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेजदिभागो।" (ष.खं./पु.४ / १, ४, ३४)। "सव्वलोगो वा।" (ष.खं./पु. ४ / १,४, ३५)।
अनुवाद-"मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि मनुष्यों, मनुष्यपर्याप्तों और मनुष्यनियों ने कितने क्षेत्र का स्पर्श किया है? लोक के असंख्यातवें भाग का अथवा सर्वलोक का स्पर्श किया है।"
सर्वलोक का स्पर्श किस प्रकार किया है, यह स्पष्ट करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं
"मारणंतिय-उववादगदेहि सव्वलोगो फोसिदो, सव्वलोगे गमणागमणे विरोहाभावादो।" (धवला/ष.खं/ पु.४/१,४,३५ पृ./२१७)। ।
अनुवाद-"मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद अवस्थाओं में मिथ्यादृष्टि मनुष्यों, मनुष्यपर्याप्तों एवं मनुष्यनियों ने सर्व लोक का स्पर्श किया है, क्योंकि इन दोनों पदों की अपेक्षा सर्वलोक के भीतर जाने-आने में कोई विरोध नहीं है। __पूर्वभव को छोड़कर उत्तरभव के प्रथम समय अर्थात् विग्रहगति के प्रथम समय में प्रवर्तन को उपपाद कहते हैं-"परित्यक्तपूर्वभवस्य उत्तरभवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपादः।" (जी.त.प्र./ गो. जी. / गा.५४३)।
. सर्वलोक में व्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव मृत्यु होने पर उत्तरभव के प्रथमसमय में मनुष्यगति के उदय से सर्वलोक में व्याप्त रहते हुए भी 'मनुष्य' कहलाने लगते हैं तथा भावपुंवेद के उदय से 'मनुष्य' (मनुष्यजातीय पुरुष), भावनपुंसकवेद के उदय से भी 'मनुष्य' (मनुष्यजातीय नपुंसक) और भावस्त्रीवेद के उदय से 'मानुषी' या 'मणुसिणी' संज्ञा प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह उपपाद की अपेक्षा मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त (पर्याप्तनामकर्मोदययुक्त पुरुषवेदी मनुष्य) तथा मनुष्यिनी का सर्वलोक-स्पर्श घटित होता है। इससे सिद्ध है कि कर्मसिद्धान्त में मात्र मनुष्यगतिनामकर्म के उदय से विग्रहगति के प्रथम समय में ही जीव को मनुष्य संज्ञा एवं पुंवेद, स्त्रीवेद आदि के उदय से विग्रहगति में ही मनुष्य, मनुष्यनी आदि संज्ञाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। अतः इस प्रकार की किसी भावमनुष्यिनी को यदि पुरुषांगोपांगनामकर्म के उदय से पुरुषशरीर प्राप्त हो जाता है, तब भी कर्मसिद्धान्त उसे 'मनुष्यिनी' या 'भावस्त्री' के ही नाम से अभिहित करता है। इस प्रकार दिगम्बरजैन-कर्मसाहित्य में 'मानुषी' या 'मणुसिणी' संज्ञा वेदवैषम्य पर भी आश्रित है।
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