________________
अ०१०/प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५११ उक्त दोनों शिवभूतियों से भिन्न सिद्ध होते हैं। फिर शिवार्य ने अपने को 'पाणितलभोजी' कहा है, यह भी इस बात का सबूत है कि शिवार्य कल्पसूत्र-स्थविरावली के शिवभूति से भिन्न हैं। २.२. शिवार्य आपवादिक सवस्त्रलिंग के विरोधी
भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य के विषय में प्रो० हीरालाल जी ने जो यह कहा है कि उन्होंने विशेष परिस्थिति में कुछ मुनियों को भी वस्त्रधारण करने की अनुमति दी थी, वह सर्वथा असत्य है। उन्होंने भगवती-आराधना की जिन गाथाओं को मुनि के लिए अपवादरूप से वस्त्रधारण की अनुमति देनेवाला माना है, वे वस्तुतः श्रावक से सम्बन्धित हैं। इसका युक्ति-प्रमाण-पूर्वक स्पष्टीकरण 'भगवती-आराधना' नामक त्रयोदश अध्याय में द्रष्टव्य है। शिवार्य और भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति की मान्यताओं के नितान्त विरोधी कट्टर दिगम्बर थे, यह त्रयोदश और चतुर्दश अध्यायों में भगवतीआराधना और उसकी विजयोदया टीका से अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया जायेगा। अतः भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य को कल्पसूत्र की स्थविरावली के आर्य शिवभूति से अभिन्न मानना दिन को रात मानने के समान है। २.३. दिगम्बर-परम्परा ऐतिहासिक दृष्टि से पाँच हजार वर्ष प्राचीन
___ 'जैनेतरसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा' तथा 'पुरातत्त्व में दिगम्बरपरम्परा के प्रमाण' नामक पूर्वाध्यायों में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बरजैन-परम्परा पाँच हजार वर्ष पुरानी है, यद्यपि जिनागम के अनुसार वह अनादि-निधन है। बोटिक शिवभूति ने भी दिगम्बरमत का प्रचलन नहीं किया था, अपितु पूर्वप्रचलित दिगम्बरमत को अंगीकार किया था, यह अपने गुरु के साथ हुए उसके विवाद से स्पष्ट है। भगवती-आराधना में भी शुद्ध दिगम्बर-सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन है। इससे सिद्ध है कि प्रोफेसर सा० ने जो कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का प्रवर्तक बतलाया है, वह भी सफेद झूठ है। २.४. भद्रबाहु-द्वितीय शिवभूति के शिष्य नहीं
प्रो० हीरालाल जी ने कहा है कि शिवभूति के उत्तराधिकारी भद्रबाहु-द्वितीय हुए, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य में बतलाया गया है कि शिवभूति की गुरुशिष्य-परम्परा कौण्डिन्य और कोट्टवीर नामक शिष्यों से चली।२९९ यहाँ भद्रबाहु के नाम का एक २९९. बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती।
कोडिन्नकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना॥ २५५२॥ विशेषावश्यकभाष्य।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org