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अ०१०/प्र०५
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४४३ इससे सिद्ध है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने जो सप्तभंगी को तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित माना है, वह सर्वथा मिथ्या है। अतः सप्तभंगी-विकासवाद के मिथ्या हेतु द्वारा कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्रकार से उत्तर-कालीन सिद्ध नहीं होते। ६.२. सप्तभंगी के विकास की परिस्थितियाँ महावीर के ही युग में
वैसे तो अनेकान्त, स्याद्वाद और नय-प्रमाण-सप्तभंगी के सिद्धान्त उतने ही प्राचीन हैं, जितना जैनशासन, तथापि यदि सप्तभंगी के विकास की कल्पना ही की जाय, तो उसके विकास की परिस्थितियाँ भगवान् महावीर के ही युग में थीं, उत्तरकाल में नहीं। क्योंकि उनके ही युग में सप्तभंगी के अंगभूत विभिन्न ऐकान्तिक भंग प्रचलित थे। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद के नासदीयसूक्त में कहा गया है
__'नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्' (१०/१२९/१) अर्थात् उस समय (सृष्टि के आरंभ में) न सत् था, न असत् था। इस कथन में सद्-असद्-निषेध रूप अनुभय-भंग का वर्णन है।
छान्दोग्योपनिषद् के ऋषि कहते हैं-'सदेव सोम्येदमन आसीत्'---असदेवेदमन आसीत्' (६/२/१) अर्थात् 'हे सोम्य! सृष्टि के पूर्व यह दृश्यमान जगत् सत् ही था ---। हे सोम्य! सृष्टि के पूर्व यह असत् ही था।' इन वाक्यों में सद्-विधान और असद्-विधान ये दो भंग वर्णित हैं।
तैत्तिरीय-उपनिषत्कार का कथन है-'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' (२/४/१) अर्थात् 'उस ब्रह्म की थाह न पाकर मन और वाणी दोनों निवृत्त हो जाते हैं।' यह उक्ति अवक्तव्य (अनिर्वचनीय) भंग का निर्देश करती है। इस प्रकार वैदिक साहित्य में चार भंग उपलब्ध होते हैं।
महावीर के समकालीन छह इतर दार्शनिकों में संजय बेलट्ठपुत्त अनिश्चयवादी था। उसके अनिश्चयवाद में भी चार भंग थे
१. मैं नहीं कह सकता कि परलोक है। २. मैं नहीं कह सकता कि परलोक नहीं है। ३. मैं नहीं कह सकता कि परलोक है भी और नहीं भी। ४. मैं नहीं कह सकता कि परलोक न है और न नहीं है।१७२
१७२. "एवं वुत्ते, भन्ते! सञ्जयो वेलट्ठपुत्तो मं एतदोवाच-'अत्थि परो लोको ति इति चे मे पुच्छसि,
अत्थि परो लोको ति इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोको ति इति ते नं ब्याकरेय्यं। एवं
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