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अ०१०/प्र.६
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४५९ कम्भराज के ताम्रपट्टिकोत्कीर्ण दानपत्र (वदनोगुप्पे-ताम्रपट्ट-दानपत्र / जै.शि.सं./ भा.जा./ भा.४ / ले.क्र.५४) में मिलता है। दानपत्र में लिखा है कि कम्भराज ने वर्धमानगुरु को शक सं० ७३० (८०८ ई०) में 'वदनोगुप्पे' ग्राम दान में दिया था। दानपत्र में वर्धमानगुरु का अन्वय इस प्रकार बतलाया गया है-कुमारनन्दि-सिद्धान्तदेव> एलवाचार्य > वर्धमानगुरु (८०८ ई०)।१८५
इस ताम्रपट्ट-दानपत्र का विवरण देकर प्रो० ढाकी ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि "उक्त वंशपरम्परा में उल्लिखित कुमारनन्दि-सिद्धान्तदेव ही आचार्य जयसेन द्वारा निर्दिष्ट कुन्दकुन्द के गुरु थे और एलवाचार्य नाम से उसमें स्वयं कुन्दकुन्द का उल्लेख किया गया है, क्योंकि विजयनगर के १३८६ ई० के दीपस्तम्भलेख में कुन्दकुन्द के पाँच नाम बतलाये गये हैं : पद्मनन्दी, आचार्य कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृध्रपिच्छ। (जै.शि.सं./मा.च./ भा.३ / ले.क्र.५८५)। यतः कुन्दकुन्द के गुरु ८ वीं शताब्दी ई० में विद्यमान थे, अतः कुन्दकुन्द का स्थितिकाल यही था।" दानपत्र में बहुप्रचलित नाम 'कुन्दकुन्द' को छोड़कर अल्पप्रचलित 'एलाचार्य' नाम का प्रयोग क्यों किया गया, इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रो० ढाकी ने बहुत से अयुक्तियुक्त, अविश्वसनीय, अग्राह्य तर्क दिये हैं, क्योंकि उसका प्रयोग स्वयं उनके गले नहीं उतर रहा था।
निरसन
दानपत्र में न सिद्धान्तदेव का नाम है, न कुन्दकुन्द का
प्रो० ढाकी ने दानपत्र में प्रयुक्त नामों को यथावत् उद्धृत नहीं किया है, उसमें से कुछ अंश हटा दिया है और कुछ नया जोड़ दिया है। और इस इंजीनियरिंग के द्वारा उन्होंने जो कुमारनन्दि-सिद्धान्तदेव नहीं हैं, उन्हें कुमारनन्दि-सिद्धान्तदेव बना दिया है और जो कुन्दकुन्द नहीं हैं, उन्हें कुन्दकुन्द बना दिया है। वास्तविक नाम क्या हैं, इसकी जानकारी के लिए दानपत्र के मूलपाठ का सम्बन्धित अंश उद्धृत किया
185. "This Kumāranandi of kondakundānvaya figures in a charter granted by
the Rāştrakūta governor of Gangavādi, Prince Raņāvaloka Kambharāja, in $.730, A.D. 808 from Badanoguppe, the charter noticed as far back as 1927. In that charter, for Vardhamānguru, who received the bequest of the village Badanoguppe, the following preceptorial lineage is given :
Kumāranandi Siddhāntadeva
Elavācārya
Vardhamāna-guru (A.D.808) (Aspects of Jainology, Vol. III, p.191).
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