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४१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०५
प्रथम तीन गुणस्थानों का एवं 'उपशान्तमोह' शब्द द्वारा अन्तिम का निर्देश किया गया है।
अपूर्वकरण - गुणस्थान से सम्बन्धित कुछ कहने योग्य विषय - विशेष तत्त्वार्थसूत्रकार के मन में नहीं था, केवल परीषहों का वर्णन अपेक्षित था । यतः अपूर्वकरण भी स्थूलकषायात्मक है, अतः सभी स्थूलकषायकाले गुणस्थानों को 'बादरसाम्पराय' शब्द से अभिहित कर "बादरसाम्पराये सर्वे" सूत्र द्वारा अपूर्वकरणगुणस्थान में होनेवाले परीषहों का भी कथन कर दिया |
"ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च " (त.सू./ २ / ४) इस सूत्र में वर्णित क्षायिकभावों में ' क्षायिकज्ञानदर्शन' पद 'सयोगिकेवली' और 'अयोगिकेवली' नामक तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों का संकेत करता है । " मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्" (त.सू./१० / १ ) सूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि मोहनीय कर्म का क्षय होने के बाद ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय का एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान अर्थात् 'सयोगिकेवली' और ' अयोगिकेवली' गुणस्थान प्रकट होते हैं।
उपर्युक्त क्षायिकभाव - प्रतिपादक सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द से क्षायिकंसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र भी सूचित किये गये हैं, जो क्रमशः दर्शनमोह और चारित्रमोह के क्षय से आविर्भूत होते हैं । पूर्वापर- कारणकार्यभाव एवं कर्म प्रकृतियों के क्रमिक क्षय से क्षायिक- चारित्रवाले गुणस्थान के भी अपूर्वकरण - क्षपक, बादरसाम्पराय - क्षपक, सूक्ष्मसाम्परायक्षपक तथा क्षीणमोह ये चार भेद होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में इनका निरूपण ' क्षपक' तथा क्षीणमोह शब्दों के द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र में हुआ है ।
“ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । " (त.सू./२/५) इस सूत्र में क्षायोपशमिकभावों का कथन किया गया है। इनमें क्षायोपशमिकसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान है, संयमासंयम पंचमगुणस्थान और क्षायोपशमिकचारित्र प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ।
“दर्शनचारित्रमोहनीय--- सम्यक्त्व - मिथ्यात्व - तदुभयान्यकषायकषायौ --- अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान --- ।” (त.सू./ ८ / ९) । इत्यादि सूत्र में दर्शनमोह की सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व (तदुभय) ये तीन प्रकृतियाँ वर्णित हैं। जब उपशमसम्यक्त्व का काल समाप्त होने लगता है, तब यदि उपर्युक्त प्रकृतियों में से सम्यक्त्वप्रकृति का उदय होता है, तो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति से जीव असंयत-सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में ही बना रहता है। यदि मिथ्यात्वप्रकृति उदय में आती है, तो मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में गिर जाता है । अथवा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का उदय आने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि
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