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३६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४
ये दो वाक्य द्विविधानि के समान सूत्ररूप नहीं हैं, अपितु इनमें प्रश्नोत्तर के द्वारा द्विविधानि के अर्थ की व्याख्या की गयी है, अतः व्याख्यारूप हैं। इस तथ्य से शंकाग्रस्त होकर उपाध्याय मुनि श्री आत्माराम जी ने अपने उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा है
"कुछ लोग यह शंका भी कर सकते हैं कि 'संभव है कि श्वेताम्बर-आगमों में तत्त्वार्थसूत्र के इन सूत्रों की ही व्याख्या की गई हो,' सो इस विषय में यह बात स्मरण रखने की है कि जैन इतिहास के अन्वेषण से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि आगमग्रन्थों का अस्तित्व उमास्वाति जी महाराज से भी पहले था। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र और जैन-आगमों का अध्ययन करने से यह स्वयं ही प्रकट हो जावेगा कि कौन किसका अनुकरण है।" (पृ.'ज' )
इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-आगमों में किया गया तत्त्वनिरूपण सूत्रात्मक या सामान्यरूप न होकर व्याख्यात्मक है। अत: व्याख्यात्मक या विशेषकथन को अर्वाचीनता का लक्षण मानने पर श्वेताम्बर-आगम तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा अर्वाचीन सिद्ध होंगे।
२. तत्त्वार्थसूत्र में निश्चय-व्यवहार नयों का उल्लेख नहीं है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) में इन नयों के द्वारा विषय-प्रतिपादन किया गया है।१४० इस विषयाधिकता को विषय की नवीनता कहा जायेगा।
३. तत्त्वार्थसूत्र में सप्तभंगी का वर्णन नहीं है, व्याख्याप्रज्ञप्ति में विस्तार से किया गया है। इसे भी विषय की नवीनता मानना होगा।
४. तत्त्वार्थसूत्र में तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध की हेतुभूत भावनाओं की संख्या सोलह ही बतलाई गई है। ज्ञाताधर्मकथांग में बीस का कथन है। यह विकास का लक्षण माना जायेगा।
१४०. "फाणियगुले णं भंते! कतिवण्णे कति गंधे कति रसे कति फासे पन्नत्ते? गोयमा! एत्थ
दो नया भवंति, तं जहा-नेच्छयियनए य वावहारियनए य। वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पन्नत्ते।" (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र / शतक १८ / उद्देशक ६/ पृष्ठ ७०४)। प्रश्न- भगवन् ! फाणित (गीला) गुड़ कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्शवाला कहा गया है? उत्तर- गौतम! इस विषय में दो नय हैं, यथा-नैश्चयिकनय और व्यावहारिकनय। व्यावहारिकनय की अपेक्षा से फाणित गुड़ मधुर-रसवाला कहा गया है और नैश्चयिकनय से गुड़ पाँचवर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्शवाला कहा गया है।
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