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३१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०३ __ "इससे आगे जिनपालित और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच में कितने काल में कितने आचार्य हुए, इस तथ्य को प्रकट करनेवाले तथ्यों के अभाव में इन्द्रनन्दी द्वारा पद्मनन्दी के सम्बन्ध में श्रुतावतार में उल्लिखित निम्नलिखित श्लोक के आधार पर अनुमान का सहारा लेने के अतिरिक्त पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) के काल के बारे में विचार करने का और कोई मार्ग ही अवशिष्ट नहीं रह जाता
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन्। गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे॥ १६०॥ श्रीपानन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः।
ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य॥ १६१॥ "इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि जिनपालित और कुन्दकुन्द के बीच में अधिक न सही तीन-चार आचार्य अवश्य हुए होंगे। उन अज्ञातनाम ३-४ आचार्यों का समुच्चयकाल कम से कम ६० वर्ष भी मान लिया जाय, तो आचार्य पद्मनन्दी, अपरनाम कुन्दकुन्दाचार्य का समय वीर नि० सं० ९४३ के आस-पास का और माघनन्दी तथा धरसेन के बीच में तीन-चार आचार्यों का अस्तित्व मान लेने की दशा में वीर नि० सं० १००० के आस-पास का अनुमानित किया जा सकता है।" (जै.ध.मौ.इ./भा.२/ पृ.७६४)।
निरसन केवल इण्डि. ऐण्टि.-पट्टावली प्रामाणिक, तदनुसार
कुन्दकुन्दकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शती हरिवंशपुराण की पट्टावली के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द का जो अस्तित्वकाल वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) अनुमानित होता है, उसकी पुष्टि दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी में प्रकाशित नन्दिसंघीय पट्टावली से नहीं होती, मर्कराताम्रपत्र (४६६ ई०) से नहीं होती, नोणमंगल के ताम्रपत्र-लेख (४२५ ई०) से नहीं होती, जिसमें उन्हीं चन्दणन्दी भटार का उल्लेख है, जिनका मर्करा-ताम्रपत्र लेख में है। उसकी पुष्टि श्रवणबेलगोल के उन शिलालेखों से नहीं होती, जिनमें प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के उमास्वाति को कुन्दकुन्दान्वय में उद्भूत बतलाया गया है और जिन्होंने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। उसकी पुष्टि कुन्दकुन्द की गाथाओं को उद्धृत करनेवाली सर्वार्थसिद्धि के रचनाकाल (४५० ई०) से नहीं होती तथा कुन्दकुन्द की गाथाओं और शैली को आत्मसात् करनेवाले मूलाचार और भगवती-आराधना नामक
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