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अ०८/ प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /९१
"भट्टारकपरम्परा के प्रथम आचार्य का पट्टाभिषेक-गुरुवचनों को शिरोधार्य कर महाराज गण्डादित्य ने उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए निवेदन किया-"भगवन्! आपके निर्देशानुसार मैं सब प्रकार की समुचित व्यवस्था कर दूंगा।
"तत्पश्चात् आचार्य माघनन्दी के आदेशानुसार गण्डादित्य ने सकल-आगम-निष्णात प्रकाण्ड विद्वान् मुनि सिंहनन्दी को आचार्यपद पर अभिषिक्त करने की पूर्ण तैयारियाँ की। आचार्य माघनन्दी ने (भट्टारकपरम्परा के प्रथम आचार्य के रूप में) सिंहनन्दी को आचार्य-पद पर नियुक्त किया। महाराज गण्डादित्य ने सिंहनन्दी का आचार्यपद पर पट्टाभिषेक किया। महाराजा गण्डादित्य ने सिंहनन्दी का आचार्यपद पर अभिषेक करते समय उन्हें (आचार्य सिंहनन्दी को) एक अत्युत्तम शिविका (पालकी) रत्नजटित पिच्छ, चँवर और छत्र आदि राजचिह्न प्रदान किये। विविध वाद्ययंत्रों के घोष के साथ महाराज गण्डादित्य ने आचार्य सिंहनन्दी की नगर में शोभायात्रा निकाल कर उनकी महती प्रभावना की। तदनन्तर राजा ने आचार्य सिंहनन्दी को विधिवत् चतुर्विध धर्मसंघ के संचालन के सर्वोच्च सत्तासम्पन्न सार्वभौम अधिकार प्रदान किये। महाराजेश्वर गण्डादित्य ने विभिन्न प्रान्तों तथा देश-देशान्तरों के राजा-महाराजाओं, जैनसंघों एवं संघनायकों को घोषणापत्र अथवा अधिकारपत्र भेजे कि आचार्य सिंहनन्दी को मूलसंघ के सर्वोच्च अधिकारसम्पन्न आचार्यपद पर अभिषिक्त किया गया है।
"इस प्रकार सुदूरस्थ प्रदेशों में भी आचार्य सिंहनन्दी की प्रसिद्धि हो गई कि ये मूलसंघ के सर्वोच्च सर्वाधिकारसम्पन्न महान आचार्य हैं।०६ इस प्रकार की व्यवस्था से आ० माघनन्दी की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई।१०७ ।
१०६. इत्युक्तं वचनं श्रुत्वा नत्वा गुरुकुलप्रभुम्। यन्निर्दिष्टं तदिच्छामीत्यब्रवीदति भक्तितः॥ २०९॥
तदाखिलादिशास्त्रज्ञं सिंहनन्दिमुनीश्वरम्। समाहूयाथ पट्टाभिषेकं कृत्वा ततः परम्॥ २१०॥ प्रदाय शिबिकाच्छत्रचामरादिपरिच्छदान्। दत्वा रत्नमयं पिच्छं चामरे च तथाविधे॥ २११॥ कारयित्वा पुरे नानावाद्यैस्तस्य प्रभावनाम्। सर्वाधिकारपदवीं दत्वैवातिप्रभावतः॥ २१२ ॥ तथा देशान्तरस्थानां नरेन्द्राणां च लेखनम्। भिन्नसंघाधिनाथानामपि प्रेषितवान्मुदा ॥ २१३॥ श्री मूलसंघाचार्योऽयमिति सर्वप्रसिद्धिजम्। तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम्॥ २१४॥
जैनाचार्य-परम्परा-महिमा। १०७. श्लोक संख्या २१४ के उत्तरार्द्ध "तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम्" से ऐसा
प्रतीत होता है कि आचार्य माघनन्दी ने अभिनव भट्टारक परम्परा को जन्म देते समय अपने शिष्य सिंहनन्दी को प्रथम भट्टारकाचार्य बनाया और वे स्वयं यथावत् नन्दिसंघ के ही सदस्य बने रहे। इससे सर्वत्र उनका नाम हो गया अर्थात् उनकी कीर्ति फैल गई। वे भट्टारकपरम्परा के जनक थे, पर उसके आचार्य नहीं बने। (सम्पादक)।
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