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२४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ था, जिसका अनुसरण उसके वीर पुत्र स्कन्दगुप्त (ई० ४५५-४६७) ने किया। इतिहासानुसार यह राजवंश ५५० ई० सन् तक प्रतिष्ठित रहा है। तिलोयपण्णत्ती की गाथाओं द्वारा यह प्रकट होता है कि गुप्तवंश २०० या १७६ ई० सन् में प्रारम्भ हुआ। यह कथन भी भ्रान्तिमूलक प्रतीत होता है, क्योंकि इस का प्रारम्भ ई० सन् ३१९-३२० में हुआ था। इस प्रकार गुप्तवंश के लिए कुल समय २३१ वर्ष या २५५ वर्ष यथार्थ घटित होता है। शकों का राज्य निश्चय ही वीर नि० सं० ४६१ (ई० पू० ६६) में प्रारंभ हो गया था और यह ई० सन् १७६ तक वतर्मान रहा। ई० सन् ५वीं शती का लेखक अपने पूर्व के नाम या काल के विषय में भ्रान्ति कर सकता है, पर समसामयिक राजवंशों के काल में इस प्रकार की भ्रान्ति संभव नहीं है।"६६
"अत एव इतिहास के आलोक में यह निस्संकोच माना जा सकता है कि 'तिलोयपण्णत्ती' की ४/१४७४-१४९६ और ४/१४९९-१५०३ तथा उसके आगे की गाथाएँ किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निबद्ध की गई हैं। निश्चय ही ये गाथाएँ ई० सन् ५०० के लगभग प्रक्षिप्त हैं।"
"तिलोयपण्णत्ती के प्रारम्भिक अंशरूप सैद्धान्तिक तथ्य मूलतः यतिवृषभ के हैं, जिनमें उन्होंने महावीर नि० सं० ६८३ या ७०३ (ई० सन् १५६-१७६) तक की सूचनाएँ दी हैं। तिलोयपण्णत्ती के अन्य अंशों के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थ का प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्य ने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्ता से इतिहास-सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं। यतिवृषभ का समय शक सं० के निर्देश के आधार पर तिलोयपण्णत्ती के आलोक में भी ई० सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है।
"यतिवृषभ अपने युग के यशस्वी आगमज्ञाता विद्वान् थे। ई० सन् सातवीं शती के तथा उत्तरवर्ती लेखकों ने इनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। इनके गुरुओं के नामों में आर्यमंक्षु और नागहस्ति की गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं द्वारा समान रूप से सम्मानित थे। आर्यमंक्षु का समय ई० सन् प्रथम शताब्दी
और नागहस्ति का समय ई० सन् १००-१५० तक का माना गया है। यतिवृषभ नागहस्ति के अन्तेवासी बताये गये हैं। अतः यह संभव है कि चूणिसूत्रों की रचना के पश्चात् तिलोयपण्णत्ती की रचना इन्होंने की। मथुरा में संचालित सरस्वती-आन्दोलन का प्रभाव इन पर भी रहा हो और ये भी ई० सन् १५०-१८० तक सम्मिलित रहे हों, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इन्होंने ग्रन्थरूप में सरस्वती का अवतरण कर परम्परा को जीवित रखा है।
६६. The Jaina Sources of the history of Ancient India, p. 140-141.
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