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अ०८/प्र० ७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१४७ के संतप्त एवं आकुल हृदय का प्रतिबिम्ब है, उसकी अपनी चित्तवृत्ति का रूप है,
और इसलिए उसकी निजी कृति है। अपनी कृति को दूसरे की प्रकट करना अथवा उसके विषय में ऐसी योजना करना, जिससे वह दूसरे की समझ ली जाय, इसी का नाम जालसाजी है और इस जालसाजी से यह ग्रन्थ लबालब भरा हुआ है। इसलिए इसे जाली कहने में जरा भी अत्युक्ति नहीं है।
"अपनी इस कृति पर से ग्रन्थकार पंडित नेमिचन्द्र इतना मूर्ख मालूम होता है कि उसे ग्रन्थरचना के समय इतनी भी तमीज (विवेक-परिणति) नहीं रही है कि मैं कहना तो क्या चाहता हूँ और कह क्या रहा हूँ! वह कहने तो चला भगवान् महावीर के मुख से निकला हुआ अविकल भाविक वृत्तान्त और सुना गया अपने संतप्त हृदय की बेढंगी दास्तान। जिस पर-निन्दा की उसने इतनी बुराई की और जिसका इतना भारी भयङ्कर परिणाम बतलाया, उसी को उसने खुद अपनाया है और उससे उसका ग्रन्थ भरा पड़ा है। क्या दूसरों को उपदेश देना ही पंडिताई का लक्षण है, खुद अमल करना नहीं?" (सूर्यप्रकाश-परीक्षा / पृ.४६-६०)।
भट्टारकों के स्वरूप में कालकृत परिवर्तन भट्टारकों का राजसी ठाठ-बाटमय, श्रावकशोषक, निरंकुश रूप देश की स्वतन्त्रता के पूर्व तक बना रहा, क्योंकि पं० नाथूराम जी प्रेमी ने स्वसम्पादित मासिक पत्रिका जैनहतैषी के वीर नि० सं० २४३७ (ई० सन् १९१०) तथा २४४१ (ई० सन् १९१४) के अंकों में तथा सन् १९४१ में लिखित भट्टारकचर्चा नाम की पुस्तक में अपने नाम का उल्लेख न करनेवाले लेखक ने अपने समय में विद्यमान भट्टारकों के उपर्युक्त स्वरूप का वर्णन किया है। (देखिये, इसी अध्याय का प्रकरण ४/ शीर्षक ४.५)।
देश के स्वतंत्र होने के बाद राजाओं का युग समाप्त हो गया, तब भट्टारकों के भी राजसी वेश का कोई महत्त्व नहीं रहा। वैज्ञानिक प्रगति के फलस्वरूप कारवायुयान आदि वाहनों का आविष्कार हो जाने से घोड़े, पालकी आदि वाहन पुराने और पिछड़े प्रतीत होने लगे, जिससे भट्टारकों ने इनका भी प्रयोग बन्द कर दिया और कार-वायुयान आदि में विहार करने लगे। लोकतंत्र की स्थापना से श्रावकों पर अत्याचार. भी मुश्किल हो गया। इस प्रकार काल के प्रभाव से भट्टारकों के स्वरूप में किसी हद तक सुधारात्मक परिवर्तन हुआ है, तथापि एक श्रवणबेलगोल को छोड़कर भट्टारकों द्वारा प्रबन्धित तीर्थों और मन्दिरों की व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं है।
धर्ममंगल नामक मराठी पाक्षिक पत्रिका की विदुषी सम्पादिका सौ० लीलावती जैन ने सन् १९९७ ई० में सभी वर्तमान भट्टारकपीठों की यात्रा कर कुछ के विषय
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