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सप्तम प्रकरण भट्टारकपरम्परा के प्रति विद्रोह
तेरापन्थ का उदय भट्टारकपरम्परा अनागमोक्त थी, श्रावक-शोषक थी एवं यथार्थधर्म-विनाशक थी, इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि ईसा की १६ वीं शती में उत्तरभारत में इस परम्परा के प्रति तीव्र आक्रोश भड़का और शास्त्रज्ञ पण्डितों के नेतृत्व में इसके खिलाफ विद्रोह का शंख फूंक दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप उत्तरभारत में भट्टारकपरम्परा जड़ से उखड़ गयी। ऐसा विद्रोह कभी न तो मुनिपरम्परा के प्रति हुआ है, न एलकपरम्परा के, न क्षुल्लक परम्परा के, क्योंकि ये आगमोक्त हैं।
कुछ वर्तमानकालीन विद्वानों का कथन है कि "भट्टारक-परम्परा ने जैनधर्म, जैनतीर्थ, मन्दिर-मूर्तियों और जैनशास्त्रों की रक्षा का महान् कार्य किया है।" यह सही है, किन्तु यह धर्मरक्षा की भावना से नहीं किया गया, अपितु राजोजित प्रभुत्व और ऐश्वर्यमय जीवन की साधनभूत धरोहर होने के भाव से किया गया। यह धरोहर दान, दक्षिणा, चढ़ावा, दर्शनपूजन-शुल्क, व्यवस्थाकर आदि आय के विभिन्न-स्रोतों के रूप में भट्टारकों के ऐश्वर्यमय जीवन का साधन बन गयी थी। रत्न-प्रतिमाओं एवं षट्खण्डागम आदि शास्त्रों की ताड़पत्रीय प्रतियों के दर्शन आज भी शुल्क लेकर कराये जाते हैं। जिस वस्तु का एकछत्र स्वामित्व प्राप्त हो जाता है और अपने राजसी ठाठ-बाट का साधन बन जाती है, उसकी रक्षा का प्रयत्न अपने-आप होता है। उस के लिए वीतरागता
और मोक्षमार्ग की कुर्वानी देने में भी हिचकिचाहट नहीं होती। यदि धर्मशासक-भट्टारकों ने जैनधर्म की रक्षा के भाव से यह किया होता, तो वे उसमें घोर विकृति उत्पन्न कर जिनधर्म के यथार्थ स्वरूप का विनाश न करते।
जिनशासन का मिथ्यात्वीकरण भट्टारकपरम्परा ने जैनशासन के मिथ्यात्वीकरण का अभूतपूर्व कार्य किया है।
यथा
१. सरागी सग्रन्थ (भट्टारकों) को वीतरागी निर्ग्रन्थ के समान गुरु एवं पूज्य ('नमोऽस्तु' एवं अष्टद्रव्य से पूजा के योग्य) बना दिया।
२. क्षेत्रपाल-पद्मावती आदि देवी-देवताओं को जिनेन्द्रदेव से अधिक पूजनीय बना दिया।
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