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[ एक सौ अस्सी ]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
२. उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि के लिए बृहत्प्रभाचन्द्र ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में एक नये सूत्र का समावेश किया है, वह है 'श्रमणानामष्टाविंशतिर्मूलगुणाः' (७/५) अर्थात् श्रमणों के २८ मूलगुण होते हैं। इनमें एक 'अचेलत्व' मूलगुण भी है, जो यापनीयमत में मूलगुण के रूप में मान्य नहीं है, क्योंकि उसमें अपवादरूप से वस्त्रधारण करनेवाला भी मुनि कहला सकता है और उस मत के अनुसार वह मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
३. एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बृहत्प्रभाचन्द्र ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में उन परीषहसूत्रों को स्थान नहीं दिया, जो गृध्रपिच्छाचार्य - कृत तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित हैं, क्योंकि उनमें 'एकादश जिने' सूत्र है, जिसे श्वेताम्बराचार्यों ने केवलि - कवलाहार का प्रतिपादक बतलाकर गृध्रपिच्छाचार्य - कृत तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सिद्ध है कि बृहत्प्रभाचन्द्र दिगम्बर थे । यदि वे यापनीय होते, तो अपने तत्त्वार्थसूत्र में परीषहसूत्रों को अवश्य रखते, क्योंकि 'एकादश जिने' सूत्र के आधार पर वे श्वेताम्बरों के समान केवली को कवलाहारी सिद्ध कर सकते थे।
ये तीन हेतु इस तथ्य के अखण्ड्य प्रमाण हैं कि बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है ।
यहाँ ग्रन्थसार समाप्त होता है, इन प्रमाणसिद्ध तीन निर्णयों के साथ कि १. दिगम्बरजैनपरम्परा ईसाकाल, वैदिककाल और सिन्धुसभ्यताकाल, इन सभी से प्राचीन है। वह वैदिक-पुराणों के अनुसार द्वापरयुग और छठे मन्वन्तर में भी विद्यमान थी । तथा २. कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती - आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सन्मतिसूत्र आदि ग्रन्थ न तो यापनीय - आचार्यों की कृतियाँ हैं, न श्वेताम्बराचार्यों की और न ही कपोलकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा के आचार्यों की, वे दिगम्बरजैनाचार्यों की लेखनी से प्रसूत हुए हैं। और ३. आचार्य कुन्दकुन्द ने इस भारतभू को ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक अपने अस्तित्व से धन्य किया था ।
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