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अ० ६ / प्र० २
दिगम्बर - श्वेताम्बर - भेद का इतिहास / ४७५
कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा | आज की दिगम्बरपरम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ हैं। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थसंघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जब कि उत्तर के निर्ग्रन्थसंघ में कुछ पार्श्वापत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा । स्वभाव से भी दक्षिणकी अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं । बौद्धधर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी, जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे । बौद्ध पिटकसाहित्य में निर्ग्रन्थों को एकशाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है। यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थसंघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था । मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, उनमें सभी में श्रमणों को कम्बल जैसे एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जनसमाज में जाते समय वह वस्त्र या कम्बल हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ भी लेते थे । 'आचारांग' के प्रथम श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन में अचेल श्रमणों के साथ-साथ एक, दो और तीन वस्त्र रखने वाले श्रमणों का उल्लेख है ।
"यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे । 'आचारांग ' से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही - पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका भी त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्ग्रन्थसंघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुओं की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम - द्वितीय शती की एक जैनश्रमण की प्रतिमा मिली है, जो अपने हाथ में एक पात्रयुक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बरपरम्परा में, विशेषरूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख- वस्त्रिका
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