________________
५४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०२ राजा बता सकता है और कौशाम्बी के राजा शतानीक को 'सार' नाम से वर्णन कर सकता है, उसके वचन पर कहाँ तक विश्वास किया जाय, इसका लेखक स्वयं विचार कर लें। कौशाम्बी के राजा सहस्रानीक के पुत्र का नाम श्वेताम्बर-जैनसूत्रों और भास के स्वप्नवासवदत्त में शतानीक लिखा मिलता है, तब दिगम्बराचार्यकृत श्रेणिकचरित्र में इसका नाम 'नाथ' और उत्तरपुराण में 'सार' लिखा है। इस पर बाबू कामताप्रसाद जी अपनी 'भगवान् महावीर' नामक पुस्तक (पृ.१४०) में लिखते हैं कि 'शतानीक' यह इस राजा का तीसरा नाम है। भला शतानीक के 'नाथ' और 'सार' जैसे अव्यवहार्य नामों का तो नामान्तर मान कर निर्वाह कर लेना और 'शोभनराय' नाम उत्तरपुराण में न होने मात्र से ही उसे अप्रामाणिक ठहरा देना यह कैसा न्याय है? यहाँ पर भी यही क्यों न मान लिया जाय कि यदि चेटक के उत्तरपुराणोक्त दस ही पुत्र थे, तो 'शोभनराज' यह भी उनमें से किसी एक का नामान्तर हो सकता है।
"६. यह कहना कि 'हरिवंशपुराण के अनुसार महावीर के समय में कलिंग का राजा जितशत्रु था, सुलोचन नहीं था', केवल तर्काभास है। क्योंकि 'जितशत्रु' यह कोई विशेष नाम नहीं है, किन्तु राजा का सम्माननीय विशेषण-मात्र है। क्या श्वेताम्बर, क्या दिगम्बर किसी भी संप्रदाय के ग्रन्थों में जहाँ-जहाँ राजा का नाम 'जितशत्रु' और रानी का नाम 'धारिणी' आता है वहाँ सर्वत्र बहुधा यही अर्थ समझना चाहिये।१२६ इस दशा में कलिंग के राजा का नाम सुलोचन मानने में कोई आपत्ति नहीं है। ___"७. लेखक की सातवीं दलील तो सभी दलीलों का मक्खन है। आप कहते हैं "क्या यह संभव नहीं है कि खारवेल के अति प्राचीन शिलालेख को श्वेताम्बरसाहित्य से पोषण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट करने के लिये ही किसी ने इस थेरावली की रचना कर डाली हो और वही रचना किसी शास्त्रभण्डार से उक्त मुनि जी को मिल गई हो?"
"प्रिय पाठक गण! कितना गहन तर्क है? इससे आप लेखक महाशय का मनोभाव तो बखूबी समझ ही गये होंगे कि इस विषय में उनके कलम उठाने का कारण क्या है? जहाँ तक मैं समझता हूँ बाबू कामताप्रसाद जी अपने सम्प्रदाय के अनन्य रक्षक जान पड़ते हैं, अपनी कट्टर सांप्रदायिकता के विरुद्ध कुछ भी आवाज निकलते ही उसकी किसी भी तरह धज्जियाँ उड़ाना आपका सर्वप्रथम कर्तव्य है, यही कारण है कि हिमवन्त-थेरावली को बगैर देखे और बगैर सुने ही उसको जाली ठहराने की हद तक आप पहुँच गये और जो कुछ मन में आया लिख बैठे। अस्तु।
१२६. "अच्छा होता यदि लेखक महाशय इस विषय के समर्थन में कोई सबल प्रमाण भी
साथ में उपस्थित कर देते।" सम्पादक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org