Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 772
________________ ५७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ७ / प्र० ४ पृ. ७९, ५२१-५५३) । श्रीमती कुसुम पटोरिया ने भी प्रेमी जी का अनुसरण करते हुए 'यापनीय और उनका साहित्य' नामक ग्रन्थ में उपर्युक्त मान्यता का पोषण किया है । और स्वयं ने सन्मतिसूत्र, हरिवंशपुराण तथा बृहत्कथाकोश को भी यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने भी सन्मतिसूत्र को यापनीयग्रन्थ बतलाया है। डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र और सन्मतिसूत्र को छोड़कर उपर्युक्त ग्रन्थों को तथा षट्खण्डागम, कसायपाहुड, यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, वरांगचरित आदि अन्य ग्यारह ग्रन्थों को यापनीय आचार्यों की कृति घोषित किया है, किन्तु इनमें से कोई भी ग्रन्थ यापनीय - आचार्य द्वारा रचित नहीं है, सभी ग्रन्थ दिगम्बराचार्यों द्वारा रचे गये हैं । इसका सप्रमाण प्रतिपादन उत्तरवर्ती अध्यायों में द्रष्टव्य है । ३ श्वेताम्बरीय और यापनीय आगमग्रन्थों में पाठभेद पं० नाथूरामजी प्रेमी ने लिखा है कि " श्वेताम्बरसम्प्रदाय मान्य जो आगमग्रन्थ हैं, यापनीयसंघ शायद उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों आगमों में कुछ पाठभेद था और इसका कारण शायद यह हो कि उपलब्ध वल्लभीवाचना से पहले की कोई वाचना (संभवतः माथुरीवाचना ) यापनीयसंघ के पास थी। क्योंकि विजयोदयाटीका में आगमों के जो उद्धरण दिये गये हैं, वे श्वेताम्बर आगमों में बिलकुल ज्यों के त्यों नहीं हैं, कुछ पाठभेद के साथ मिलते हैं ।" (जै. सा. इ. / प्र.सं./ पृ. ४५-४६)। इसका तात्पर्य यह है कि यापनीय-सम्प्रदाय माथुरीवाचना के श्वेताम्बर - आगमों को मानता था। यह वाचना वीरनिर्वाण संवत् ८२७ - ८४० ( ई० सन् ३०० - ३१३) में आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में हुई थी। इस वाचना के आगमों में ऐसे अनेक पाठ थे, जो वलभीवाचना के आगमों में नहीं मिलते अर्थात् उनमें से हटा दिये गये । वलभीवाचना वीर निर्वाण संवत् ९८० - ९९३ ( ई. सन् ४५३ - ४६६) में श्री देवर्द्धिगणि के नेतृत्व में वलभी में सम्पन्न हुई थी । माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- " जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर की तरह एक यापनीयसंघ भी था। यह संघ नग्नता का पक्षपाती था तथापि श्वेताम्बरीय आगमों को मानता था । इस संघ के एक आचार्य अपराजित - सूरि की संस्कृतटीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है, जो मुद्रित हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में श्री अपराजितसूरि ने आगमग्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते। यहाँ दो-एक उद्धरण दिये जाते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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