Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 783
________________ अ०७/प्र०४ यापनीयसंघ का इतिहास / ५८७ नग्न रहने का औचित्य क्या है? और यदि नग्नत्व से ही मोक्ष संभव है, तो सवस्त्रता के अपवादमार्ग की गुंजाइश कहाँ है? इन तर्कों का यापनीयों के पास कोई उत्तर नहीं था। इसलिए अपने-अपने दर्शन पर दृढ़ रहनेवाले दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों यापनीयमत की ओर आकृष्ट नहीं हुए। तथा आगे चलकर भिक्षादि की सुविधा के लिए भी नग्नत्व अनिवार्य नहीं रह गया था, क्योंकि श्वेताम्बर साधुओं को भरणपोषण के लिए राजाओं से ग्रामादि दान में मिलने लगे थे तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में मठवासी और चैत्यवासी साधुओं के सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये थे, जो मन्त्र-तन्त्र, पूजा-विधान आदि के चमत्कारों से राजा-प्रजा दोनों को प्रभावित कर उनसे भूमि-ग्राम आदि का दान प्राप्त करने लगे थे। इस प्रकार उन्होंने शानशौकतभरी जिन्दगी जीने की स्थायी व्यवस्था कर ली थी। इसलिए यापनीय बनने का यह आकर्षण भी नहीं रहा। फिर उनके बेमेल मत पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों की ओर से प्रहार होते रहे होंगे। यद्यपि नग्नत्व को छोड़कर उनके सभी सिद्धान्त श्वेताम्बरों के अनुकूल थे, इसलिए उनके साथ उनका अधिक विसंवाद और विरोध नहीं था, तथापि जिनकल्प या अचेलत्व की मान्यता को लेकर श्वेताम्बर उन पर यदा-कदा प्रहार अवश्य करते होंगे। दिगम्बरों ने तो उन्हें जैनाभास ही घोषित कर दिया था, अतः उनकी गर्दा-निन्दा का पात्र तो यापनीयों को बनते ही रहना पड़ता होगा। इसके अतिरिक्त कुछ समझदार यापनीयों को भी अपना बेमेल सिद्धान्त अरुचिकर लगने लगा होगा और बहुसंख्यक दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के बीच में अल्पसंख्यक बनकर जीना भी कठिन हो रहा होगा। इसके अतिरिक्त उनके प्रभावहीन हो जाने से राजाश्रय भी छिन गया होगा। इन कारणों से वे अपना सम्प्रदाय छोड़कर अपनी-अपनी अनुकूलता के अनुसार या तो दिगम्बरों में मिल गये और उनके सिद्धान्त अपना लिये या श्वेताम्बरों के सिद्धान्तों और वेश का एकान्ततः वरण कर उनमें शामिल हो गये। इस तरह ईसा की १५वीं शती के बाद यापनीय-सम्प्रदाय का लोप हो गया।६६ माननीय डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया जी ने भी माना है कि जब यापनीयों के कई विचारों और आचारों का दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के द्वारा विरोध होने लगा, तो उन्हें इन दोनों में, खासकर दिगम्बरों में मिल जाना पड़ा।६७ १६६. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास / प्र. सं. / पृ.४२। १६७. प्रकाशकीय / पृ. ३ / यापनीय और उनका साहित्य : डॉ० श्रीमती कुसुम पटोरिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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