Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 788
________________ आ ५९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अपवाद (आपवादिक) लिंग- यापनीय अविमारक (भासकृत नाटक) २६० मुनि का सचेललिंग ४९३, ४९६ अवैदिक (श्रमण, दिगम्बरमुनि) २६१ अपशकुन (दि. जैन मुनि के दर्शन) २७०, अशुभकर्म-निर्मूलन (जाबालोपनिषद्) २७७, २७१, ३०४ २७८ अफगानिस्तान ४०१, ४०२ अशोक-स्तम्भलेख ६५ अभिजातियाँ (मनुष्यों की, छह / बौद्ध- अश्वघोष (बौद्धकवि) २५१ साहित्य)-तृष्णाभिजाति, नीलाभिजाति, अश्वेत भिक्षु ५६ लोहिताभिजाति, हरिद्राभिजाति, असभ्यावयव-गोपन ३६१ शुक्लाभिजाति, परमशुक्लाभिजाति ३२० अहरिष्टि-श्रमणसंघ ३९० अरहतपूजा १४८ अहिरिका निगण्ठा (अह्रीक = निर्लज्ज अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) १८, ३७४ निर्ग्रन्थ) १४०, ३१०, ३११, ३१२, ३१४ अर्धफालक (वस्त्र का आधा टुकड़ा) १३०, अह्रीक १०६, ३१२ ४५६ अर्धफालक (साधु, संघ, सम्प्रदाय) ३७३, ३७७, ३७८-३८८, ४११, ४१२, ४३२, आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, ४५७, ४६०-४६२, ४६४, ५२० खण्ड २ (मुनि नगराज जी) १०४, १७४ अर्धफालकतीर्थ-प्रवर्तन ४६१, ४६२ आगमवाचना (श्वे. संघ)अर्धफालकधारियों का श्वेताम्बरीकरण ४६४ प्रथम-पाटलिपुत्र ४२० अर्धगामधी आगम (साहित्य) १२ द्वितीय-कुमारीपर्वत (कलिंग) ४२२ अर्धमागधीकरण ५८१, ५८२ तृतीय-मथुरा ४२२ अरिहन् २९९ चतुर्थ-वल्लभी ४२२ अर्हतायतन १४८ आग्नीध्र २६२ अर्हत्प्रोक्त सद्धर्म १४८ आचारांग ८४, ९३-९५, ९९, १०१, १२५, अर्हदायतन १४८, ३८९ १२६, १६२, १६३, १६५, १६७, २१३, अर्हद्वलि (एकांगधारी) १३२ २२६, ४८०, ५८४ अर्हद्भक्त १४८ -शीलांकाचार्यवृत्ति १००, १२५, १२६, अलका श्रेष्ठिनी ३७३-३७५ १६२, १६३, १६६-१६९, २०९, २१३ अलौकिक वस्त्र ९९, १००, १०२ आचेलक्य ७, १५५, १६१, १७६ अल्तेम-अभिलेख ३९० आजीविक, आजीवक सम्प्रदाय (प्रवर्तकअवधूत संन्यासी २७६, २७९ मक्खलिगोशाल) २०, ३०१-३०८, अवमचेल (द्विवस्त्रधारी) १६२, १६३ ३१५, ३१७,३२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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