Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 829
________________ .. प्रयुक्त ग्रन्थों एवं शोधपत्रिकाओं की सूची / ६३३ - संस्कृतवृत्ति : श्री सिद्धसेनसूरि शेखर १६७. प्रवचनसारोद्धार : श्री नेमिचन्द्रसूरि। प्रकाशक : श्री जैन श्वे. मू. तपागच्छ गोपीपुरा संघ, सूरत। ई० सन् १९८८ । - टिप्पणीकार : श्री उदयप्रभ सूरि। १६८. प्रशमरतिप्रकरण : श्वेताम्बराचार्य उमास्वाति। परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद्राज चन्द्र आश्रम अगास (गुजरात)। वि० सं० २०४४ । - हारिभद्रीय टीका : श्री हरिभद्र सूरि। १६९. प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा : साध्वी डॉ० दर्शनकलाश्री। __ श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, जयंतसेन म्यूजियम, मोहनखेड़ा (राजगढ़) धार, म० प्र०। ई० सन् २००७। १७०. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : डॉ० रिचार्ड पिशल। विहार राष्ट्रभाषा परिषद् , पटना-३। ई० सन् १९५८। - जर्मनभाषा से हिन्दी-अनुवाद : डॉ० हेमचन्द्र जोशी। १७१. प्राकृत साहित्य का इतिहास : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन। द्वितीय संस्करण। चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी। ई० सन् १९८५ । १७२. प्राचीन भारतीय संस्कृति : बी० एन० लूनिया। लक्ष्मीनारायण अग्रवाल पुस्तक प्रकाशक, आगरा-३। ई० सन् १९७० । १७३. बारस अणुवेक्खा : आचार्य कुन्दकुन्द। १७४. बृहत्कथाकोश : आचार्य हरिषेण। सिंघी जैन ग्रन्थमाला। ई० सन् १९४३ । - अँगरेजी प्रस्तावना : डॉ० ए० एन० उपाध्ये। १७५. बृहत्कल्पसूत्र (मूलनियुक्तिसहित) : स्थविर आर्य भद्रबाहु स्वामी। - Vol. V (चतुर्थ एवं पंचम उद्देश)। ई० सन् १९३८ । - Vol. VI (षष्ठ उद्देश)। ई० सन् १९४२। प्रकाशक श्री आत्मानन्द जैनसभा, भावनगर। - भाष्य : श्री संघदासगणी क्षमाश्रमण। - वृत्ति : आचार्य श्री मलयगिरि, जिसे आचार्य श्री क्षेमकीर्ति ने पूर्ण किया। १७६. बृहत्संहिता : वराहमिहिर। १७७. बृहदारण्यकोपनिषद् : ईशादिदशोपनिषद्। मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली। ई० सन् १९७८। - शांकरभाष्य : श्री शंकराचार्य। १७८. बृहद्रव्यसंग्रह : नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव। परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास (गुजरात)। वि० सं० २०२२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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