Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 771
________________ अ० ७ / प्र० ४ यापनीयसंघ का इतिहास / ५७५ इस प्रकार अध्यात्मशास्त्र को छोड़कर चारों अनुयोगों के सभी ग्रन्थ यापनीयों को अपनी जननी श्वेताम्बर - परम्परा से विरासत में उपलब्ध हुए थे । इसलिए उनका स्वरचित साहित्य प्रायः नगण्य है। उन्होंने प्रायः वही ग्रन्थ रचे हैं, जो दिगम्बर- परम्परा की स्त्रीमुक्तिनिषेध, केवलिभुक्तिनिषेध आदि मान्यताओं का खण्डन करने के लिए और अपने मत की पुष्टि के लिए आवश्यक थे । हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरा में एक यापनीयतन्त्र नामक यापनीयग्रन्थ का उल्लेख किया है, जिसके स्त्रीमुक्ति - समर्थक अ तर्क उन्होंने अपने ग्रन्थ ( ललितविस्तरा ) में उद्धृत किये हैं, किन्तु यह ग्रन्थ वर्तमान में अनुपलब्ध है । यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन १५९ के तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण एवं शाकटायनव्याकरण। उनका एक साहित्यविषयक ग्रन्थ भी था, जिसका मत राजशेखर ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा' में उद्धृत किया है। (प्रेमी : जै. सा. इ. / प्र. सं. / पृ.४३) । यापनीय साहित्य के इतने ही ग्रन्थों का पता अभी तक चल पाया है । पाल्यकीर्ति शाकटायन सम्राट् अमोघवर्ष के समकालीन ( ८१४ - ८६७ ई० ) थे । (ती. म. आ. प. / ३ / पृ.२०) । पं० नाथूरामजी प्रेमी ने भगवती - आराधना, उसकी विजयोदया टीका, मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र को यापनीय - आचार्यों द्वारा रचित बतलाया है। (जै. सा. इ./द्वि.सं./ १५९. “शाकटायन या पाल्यकीर्ति : शाकटायन नाम का एक और व्याकरणग्रन्थ है, जिसके कर्त्ता जैन थे । ये भी शाकटायन नाम से प्रसिद्ध हैं । परन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका वास्तविक नाम पाल्यकीर्ति था । वादिराजसूरि ने अपने 'पार्श्वनाथचरित' काव्य में उनका स्मरण इस प्रकार किया है कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः । श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान्कुरुते जनान् ॥ अर्थात् उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति की शक्ति का क्या वर्णन किया जाय, जिसका 'श्री' पद - श्रवण ही लोगों को शाब्दिक या व्याकरणज्ञ बना देता है । शाकटायन की अमोघवृत्ति नाम की एक स्वोपज्ञ टीका है। उसका आरंभ 'श्रीवीरममृतं ज्योतिः' आदि मंगलाचरण से होता है । वादिराजसूरि ने इसी मंगलाचरण के 'श्री' पद को लक्ष्य करके यह बात कही है कि पाल्यकीर्ति ( शाकटायन) के व्याकरण का आरंभ करने पर लोग वैयाकरण हो जाते हैं। पूर्वोक्त श्लोक की टीका आचार्य शुभचन्द्र अपनी पार्श्वनाथचरित - पंजिका में इस प्रकार करते हैं-" तस्य पाल्यकीर्तेः महौजसः श्रीपदश्रवणं श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणम् आकर्णनम्।" इससे यह स्पष्ट होता है कि पंजिकाकार शुभचन्द्र पाल्यकीर्ति को शाकटायन सूत्रों का कर्त्ता मानते थे।" ( पं० नाथूराम प्रेमी : शाकटायन और उनका शब्दानुशासन / जैनसिद्धान्त भास्कर / भाग ९ / किरण १ / जून १९४२ / पृ. १८) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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