Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 778
________________ ५८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०४ हैं, प्रथम यही है कि माथुरीवाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरी यह है कि यापनीयों ने उन आगमों का शौरसेनीकरण करके श्वे० परम्परा में मान्य आचारांग आदि से उनमें अपनी परम्परा के अनुरूप कुछ पाठभेद रखा हो।" (जै. ध. या. स./ पृ.७३-७४)। "आराधना की टीका में उद्धृत इन (उत्तराध्ययन की) गाथाओं पर भी शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप न मिलकर अर्धमागधीरूप ही मिलता।" (जै. ध. या. स. / पृ.७४)। लेकिन, जैन-बौद्धदर्शनों एवं पालि-प्राकृत भाषाओं के अन्तरराष्ट्रीयख्यातिप्राप्त वरिष्ठ श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० नथमल जी टाँटिया ने डाक्टर सागरमल जी के उपर्युक्त विचारों से ठीक विपरीत विचार व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं "श्रमणसाहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के 'त्रिपिटक' आदि हों, श्वेताम्बरों के 'आचारांगसूत्र', 'दशवैकालिक सूत्र' आदि हों अथवा दिगम्बरों के 'षट्खण्डागमसूत्र', 'समयसार' आदि हों, वे सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। श्वेताम्बरजैन-साहित्य का भी प्राचीनरूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका रूप क्रमशः 'अर्धमागधी' में बदला गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी-आगम-साहित्य को ही मूल श्वेताम्बरआगमसाहित्य मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधीभाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगमसाहित्य को भी ५०० वर्ष ई० के परवर्ती मानना पड़ेगा। आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जब कि नये प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है।"१६४ डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने भी लिखा है कि "वर्तमान श्वेताम्बरआगमसाहित्य के जो ग्रन्थ अर्धमागधी में उपलब्ध होते हैं, वह अर्धमागधी तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि की भाषा नहीं है। इसका रूप तो चौथी-पाँचवीं शताब्दी में गठित हुआ है।" (ती. म. आ. प. /खं. १/ पृ. २४०)। इसे उन्होंने 'प्राकृतभाषा और १६४. क-'प्राकृतविद्या' जनवरी-मार्च, १९९६ / श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) नई दिल्ली। ख–'जिनागमों की मूलभाषा' । प्राकृत टेस्ट सोसायटी, अहमदाबाद / पृष्ठ १२८ । ग- डॉ० सुदीप जैन : 'खरा सो मेरा' (कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली, १९९९ ई०)। पृ. ५ पर उद्धृत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844