Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 774
________________ ५७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०७/प्र०४ लिया कि वे यापनीयों द्वारा मान्य आगमों को श्वेताम्बरमान्य आगमों से सर्वथा भिन्न मानते हैं और उन्होंने पण्डित जी पर अतिसाहस करने का आक्षेप कर दिया। जब कि आगे डॉक्टर सा० ने स्वयं स्वीकार किया है कि "निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दशः नहीं है।" वे सफाई देते हुए आगे कहते हैं "किन्तु सव्वसमन्नागय नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है।" (जै. ध. या. स./पृ.७२)। किन्तु किस पाठ या सूत्र में सुरक्षित है, यह नहीं बतलाया। मैंने भी आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन की सूक्ष्मता से छानबीन की है, किन्तु उपर्युक्त पाठ के अर्थ को सुरक्षित रखनेवाला कोई भी पाठान्तर या शब्दावली उपलब्ध नहीं हुई। सव्वसमन्नागय पद जिस पाठ में है, उसके अर्थ का तो उपर्युक्त पाठ के अर्थ से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। वह पाठ इस प्रकार है "जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ वि अंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि।"१६० इसका भावार्थ प्रकाशित करते हुए मुनि श्री सौभाग्यमल जी लिखते हैं-"साधना के कठिन मार्ग में चलते हुए साधक को कभी ऐसा मालूम पड़े कि मैं परीषह और उपसर्गों से घिर गया हूँ और उन्हें सहन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ, तो ऐसे प्रसंग पर उसे प्रथम तो अपनी समस्त बुद्धि द्वारा सोचकर (सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना) जहाँ तक बने वहाँ तक उपसर्ग से बच निकलना चाहिए, परन्तु अकार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। यदि किसी भी तरह बचने की सम्भावना न हो, तो वैहानसादि (अकाल) मरण से मर जाना चाहिये, परन्तु अकार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। इस प्रसंग का आकस्मिक मरण भी अनशन और मृत्युकाल के मरण के समान निर्दोष और हितकर्ता है। इस तरह मरण की शरण होनेवाले मुक्ति के अधिकारी हो सकते हैं। कतिपय निर्मोही आत्माओं ने ऐसे प्रसंग पर मरण का शरण लिया है इसलिए यह हितकारी, सुखकारी, युक्तियुक्त, कर्मक्षय का हेतुभूत और भवान्तर में भी पुण्यप्रद है, ऐसा मैं कहता हूँ।१६० उपर्युक्त पाठ (वि.टी./ भ. आ. / गा. ४२३) के अर्थ का इस पाठ के अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः डॉक्टर सा० का यह कथन प्रमाणित नहीं होता कि १६०. आचारांग (प्र.सं.) १/८/४/ पृ. ५३६-३७/ श्री जैन साहित्य समिति नयापुरा, उज्जैन। - वि. सं. २००७। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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